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झोलियां भर गयीं सबकी, कोई मायूस नहीं लौटा

झोलियां भर गयीं सबकी, कोई मायूस नहीं लौटाकाली सिद्धेश्वरी मंदिर. यहां हर इच्छा को पूरी करती हैं मां- गंगा किनारे घूमने आते थे अंग्रेज, तो काली मंदिर में जरूर जाते थे- भतुआ की दी जाती है बलि और होती है दस दिनों तक पूजा- 15 दिनों के अंदर हो जाती है शादी, पूरे पटना में […]

झोलियां भर गयीं सबकी, कोई मायूस नहीं लौटाकाली सिद्धेश्वरी मंदिर. यहां हर इच्छा को पूरी करती हैं मां- गंगा किनारे घूमने आते थे अंग्रेज, तो काली मंदिर में जरूर जाते थे- भतुआ की दी जाती है बलि और होती है दस दिनों तक पूजा- 15 दिनों के अंदर हो जाती है शादी, पूरे पटना में बांसघाट से जाता था बांस संवाददाता, पटना झोलियां भर गयी सबकी, कोई खाली नहीं गया. सबकी मन की मुराद पूरी होती है. मां ने कभी किसी को मायूस नहीं किया. यही सुनने को मिलता है बांसघाट स्थित काली सिद्धेश्वरी मंदिर के बारे में. इस शक्तिपीठ की पूजा करने से हर मन्नत पूरी होती है. करीब 300 साल पहले बने इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है. यहां पहले तांत्रिक विधि से पूजा होती थी. लेकिन, पिछले चार वर्षों से वैष्णव रीति-रिवाज से पूजा हो रही है. मंदिर के न्यास ट्रस्ट के सचिव शैलेंद्र श्रीवास्तव ने बताया कि यहां पर दो महिलाएं सती हुई थी. इसलिए इस स्थल का नाम दो-जरा रखा गया था, जो अब दुजरा बोला जाता है. मंदिर के इतिहास के बारे में उन्होंने बताया कि सामने गंगा नदी में जब अंग्रेज आते थे, तो इस स्थल पर जरूर घूमने आया करते थे. 12 अनाज लेकर तांत्रिक करते हैं पूजा यहां भतुआ बलि के कारण पूजा दस दिनों तक होती है. मां के वैष्णवी रूप की पूजा दसमी को होती है. 12 प्रकार के अनाज को मिट्टी में मिला कर उस पर कलश स्थापित किया जाता है. एक आचार्य कलश के पास एवं पंडित प्रतिमा वेदी की जगह मां दुर्गा की पाठ करते हैं.भतुआ की दी जाती है बलिहर नवरात्र में यहां भतुआ की बलि दी जाती है. नवरात्र के पहले तीन दिन केवल चंडी पाठ होता है. चौथे दिन प्रतिमा की प्रथम रंगाई काले व सफेद कल्ली से की जाती है. पांचवें दिन पान खिलाने का रस्म होता है. षष्टी के दिन जुड़वा बेल, मैन का पत्ता, केला का थम, मेंसन की डोरी लगा कर बांध दिया जाता है. उसके बाद संख्या समय देवी का आहवान किया जाता है. नवरात्र के सातवें दिन कच्चे बांस की डोली बना कर गंगा नदी में ले जाते हैं और वहां विधि पूर्वक डोला का स्नान कराया जाता है. स्नान के बाद उसकी स्थापना मान पत्रिका के रूप में होती है.बांस के पेड़ों से हो गया बांसघाटआजादी से पहले दुजरा स्थल के पास बांस का एक बड़ा पेड़ था. लोग इसका इस्तेमाल मरने के दौरान किया करते थे. शहर में किसी के अधिकांश घरों में गमी के दौरान बांस दुजरा से ही काट कर ले जाया करते थे. दुजरा के समीप गंगा नदी के किनारे बांस के काफी अधिक पौधे होने की वजह से इस घाट का नाम बांसघाट रख दिया गया.पूरे देश से आकर होती है तंत्र साधनाबांसघाट काली मंदिर में न केवल बिहार से बल्कि उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, झारखंड़, असम आदि कई राज्यों के कोने-कोने से साधक आकर तंत्र साधना करते हैं. इसके अलावा यहां महानिशा व संधि पूजा काफी भव्य तरीके से होती है. इसके अलावा पूरे राज्य में तांत्रिकों का जम घट इसी मंदिर में लगता है. तांत्रिक अपने विधि-विधान से पूजा अर्चना करते हैं.ऐसे पहुंचें काली मंदिरबांसघाट की काली मंदिर तो वैसे ही बहुत प्रसिद्ध हैं. आपको यहां आने के लिए पटना जंकशन से गांधी मैदान होते हुए ऑटो, बस या निजी वाहनों से आसानी से पहुंचा जा सकता है. इसके अलावा दानापुर स्टेशन से भी दीघा के रास्ते सड़क मार्ग से होते हुए मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है.

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