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कड़वा सच: निगेटिव ग्रुप के ब्लड की पड़ जाये जरूरत, तो ढूंढ़ते रह जायेंगे, सरकारी ब्लड बैंक बीमार

पटना: अगर आपका अपना कोई गंभीर हालत में भरती है और उसे निगेटिव ग्रुप का ब्लड चाहिए, तो आप भूल जायें कि आपको मिलेगा. बिहार के अधिकांश मरीज गंभीर हालत में इलाज के लिए पीएमसीएच या आइजीआइएमएस पहुंचते हैं, लेकिन वहां भरती मरीजों को भी ब्लड नहीं मिल पाता है. ऐसे में बाहरी लोगों की […]

पटना: अगर आपका अपना कोई गंभीर हालत में भरती है और उसे निगेटिव ग्रुप का ब्लड चाहिए, तो आप भूल जायें कि आपको मिलेगा. बिहार के अधिकांश मरीज गंभीर हालत में इलाज के लिए पीएमसीएच या आइजीआइएमएस पहुंचते हैं, लेकिन वहां भरती मरीजों को भी ब्लड नहीं मिल पाता है. ऐसे में बाहरी लोगों की बिसात. राजधानी में सबके सब ब्लड बैंक खुद बीमार हैं, तो भला आम मरीजों का कहां से इलाज होगा. ऐसे में मरीज की मौत खून नहीं मिलने के कारण हो जाये, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है.
आबादी बढ़ी, ब्लड बैंक नहीं बढ़े
फिलहाल पटना में 20 लाख लोग रहते हैं, वहीं सैकड़ों लोग अन्य जिलों से भी राजधानी में पहुंचते हैं. राजधानी में इनके लिए सरकारी स्तर पर चार ब्लड बैंक हैं, लेकिन पिछले एक सप्ताह से एनएमसीएच, आइजीआइएमएस व जयप्रभा में जहां किसी भी निगेटिव ग्रुप का ब्लड नहीं है, वहीं पीएमसीएच में ए, एबी पॉजिटिव भी नहीं मिल रहा है. मालूम हो कि इन ब्लड बैंकों में पीएमसीएच व जयप्रभा से हर दिन लगभग सौ यूनिट रक्त का आदान-प्रदान होता है. जिस तरह से आबादी बढ़ी है, उसकी तुलना में इन ब्लड बैंकों को बेहतर नहीं किया गया तो ये भी बंद हो जायेंगे या यहां के चिकित्सक व कर्मचारी भाग जायेंगे.
प्राइवेट ब्लड बैंक की बल्ले-बल्ले
राजधानी में गैर सरकारी रूप में लगभग 50 ब्लड बैंक काम कर रहे हैं. वहां से लोग मजबूरी में ब्लड लेते हैं. सूत्रों की मानें तो प्राइवेट ब्लड बैंकों में गुणवत्ता की कमी रहती है, लेकिन जरूरत पड़ने पर लोग गुणवत्ता नहीं देखते हैं, बस उन्हें किसी भी हाल में ब्लड चाहिए. ऐसे में ब्लड बैंक वाले मनमाना रेट भी ले लेते हैं. उन पर प्रशासन भी अंकुश नहीं लगा पाता है. वहीं गुणवत्ता नहीं रहने से मरीजों को फायदा नहीं मिल रहा है. हालांकि गैर सरकारी में रेडक्रॉस सोसाइटी से लोगों को लाभ मिलता है.
नहीं मिल रहा निगेटिव ग्रुप का ब्लड
ब्लड बैंकों में खासकर निगेटिव ग्रुप के ब्लड की हमेशा कमी रहती है. उनमें भी एबी और ओ निगेटिव ग्रुप का ब्लड तो संयोग से मिलता है. यहां 80 प्रतिशत लोगों का ब्लड ग्रुप ए+, बी+ या ओ+ है. इसकी वजह से अन्य ग्रुप के ब्लड की कमी नहीं रहती है. इसकी कमी का एक बड़ा कारण लोगों द्वारा ब्लड डोनेट नहीं भी किया जाना है. दरअसल अधिकतर लोग ब्लड देने से घबराते हैं. एक्सपर्ट की मानें तो लोगों को तीन माह के अंतराल पर रक्तदान करने से कोई परेशानी नहीं होती है. यहां तक कि इस दौरान रक्त दाता का चार-पांच टेस्ट भी हो जाता है. इसके बाद भी लोग भ्रांति के चक्कर में पड़ कर रक्तदान नहीं करते हैं.
ब्लड बैंक में घट रहा प्लेटलेट्स
मरीजों को आज भी जब प्लेटलेट की जरूरत पड़ती है, तो उस वक्त उसके परिजन परेशान हो जाते हैं. आइजीआइएमएस में बनाया गया ब्लड बैंक अभी कम्पोनेंट देने की क्षमता नहीं रखता है. पीएमसीएच में मरीजों की भीड़ इतनी अधिक है कि वह अपने यहां एडमिट मरीजों को ही खून देने में सक्षम नहीं हैं. जयप्रभा ब्लड बैंक की बात करें, तो वहां निजी व सरकारी दोनों अस्पतालों को खून देना है. चिकित्सक की मानें तो सूबे में हर दिन बीमारी बढ़ रही है, जिसमें से अधिकांश बीमारी में कम्पोनेंट की जरूरत पड़ती है.
जिम्मेवार बोले
लाइसेंस नहीं मिलने से आइजीआइएमएस कम्पोनेंट सेपरेशन यूनिट नहीं काम कर रहा है, लेकिन भरती मरीजों को होल ब्लड दिया जाता है. इसमें संस्थान प्रशासन की कोई गलती नहीं हैं. संस्थान से लोग लाइसेंस के लिए हर दिन जाते हैं, लेकिन लाइसेंस नहीं मिल पाया है.
डॉ एसके शाही, एमएस, आइजीआइएमएस
ब्लड बैंक में अभी सुविधाओं की कमी नहीं है, लेकिन नये भवन की जरूरत है, ताकि इसे और बेहतर स्वरूप दिया जा सके. भवन नया बनेगा, तो जगह बढ़ेगी और अधिक से अधिक मात्र में रक्त संग्रह होगा. जिस ग्रुप का खून कम मिलता है उसे अधिक मात्र में स्टोर करने के बाद सुरक्षित रखा जायेगा. डोनर नहीं रहने से भी कभी-कभी कुछ ग्रुप का ब्लड कम जाता है.
डॉ सुधांशु सिंह, पीएमसीएच उपाधीक्षक
आइजीआइएमएस में क्यों नहीं शुरू हुआ संपूर्ण ब्लड बैंक यूनिट 2013 में केंद्र सरकार ने नाको के माध्यम से मगध मेडिकल कॉलेज, गया में कम्पोनेंट सेपरेशन यूनिट स्थापित करने के लिए मशीन भेजी, लेकिन किसी कारण से वहां नहीं लग पायी. उस वक्त के निदेशक डॉ अरुण कुमार ने पहल की और भारत सरकार को पत्र लिख कर उस यूनिट को आइजीआइएमएस में लगाने के लिए अनुरोध किया, जिसकी अनुमति के बाद वह यूनिट आइजीआइएमएस में लगाया गया. इसके बाद पूर्व निदेशक ने चार दिनों तक उस यूनिट को चलाया और कम्पोनेंट को अलग किया गया. इसके बाद उसकी विधिवत शुरुआत करने के लिए लाइसेंस के लिए आवेदन किया गया. इसी बीच निदेशक बदल गये और वह यूनिट शुरू नहीं हो पाया. आज भी उस ब्लड बैंक में हर मशीन के रहने के बाद भी मरीजों को महज होल ब्लड मिल रहा है और कम्पोनेंट की जरूरत पड़ती है तो उसे खून के लिए बाहर भेज दिया जाता है. जो मरीज खून लाने में सक्षम हैं, उनके मरीज मरने से बच जाते हैं. यह संस्थान प्रशासन की धीमी कार्यशैली का नतीजा है कि यूनिट तैयार होने के बावजूद प्लेटलेट, प्लाज्मा एवं कम्पोनेंट के लिए परिजनों को परेशान होना पड़ रहा है.

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