सुशील कुमार मोदी
जेपी आंदोलन के प्रमुख साथी रहे अरुण जेटली एक कुशल रणनीतिकार थे. बिहार से उनका लगाव छात्र आंदोलन के समय से ही रहा था. जेपी आंदोलन से लेकर चारा घोटाला मामले में सुप्रीम कोर्ट में पैरवी में उनकी बड़ी भूमिका रही थी.
बाद के दिनों में बिहार भाजपा के प्रभारी नियुक्त होने के बाद बिहार मेें भाजपा-जदयू की सरकार बनने, फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच सीटों के बंटवारे का मामला हो या नवंबर में बनी सरकार में मंत्रियों की नियुक्ति में सामाजिक समीकरण का ख्याल रखा जाना, अरुण जेटली की अहम भूमिका रही थी. 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार में एनडीए की भारी सफलता में भी उनकी भूमिका रही.
1973 में जेटली दिल्ली विवि छात्रसंघ में उपाध्यक्ष के पद पर चुने गये थे. अगले साल वह अध्यक्ष भी बने. सात और आठ जनवरी, 1972 को दिल्ली में आॅल इंडिया स्टूडेंट लीडर काॅन्फ्रेंस में मैं, रविशंकर प्रसाद और लालू प्रसाद ने हिस्सा लिया था. इस बैठक में उनसे संबंध बने.
यहीं बिहार आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी. अगले साल 17-18 फरवरी को छात्र-युवाओं का सम्मेलन हुआ. इसी में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के गठन का निर्णय लिया गया. जेपी ने उन्हें इसका कन्वेनर बनाया था और उन्होंने बेहतर भूमिका निभायी. इसके बाद अरुण जेटली अपने प्रोफेशन में व्यस्त रहे. चारा घोटाले के मामले में हम लोगों ने उनसे कानूनी राय ली.
जब लालू प्रसाद इसे सुप्रीम कोर्ट ले गये. मैं, ललन सिंह आदि ने अरुण जेटली से संपर्क किया, उनसे कानूनी राय लेते रहे और आगे की स्ट्रेटजी बनती रही. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हमलोगों का पक्ष रखा. इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाइकोर्ट को इस मामले की माॅनीटरिंग करने का निर्देश दिया.
2000 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 67 सीटें मिलीं और जदयू 32 सीटों पर थीं. 2005 में वह बिहार भाजपा के प्रभारी थे. पहली बार बिहार की राजनीति से उनका सीधा संबंध बना. लोजपा के विधायकों को मोड़ना, राष्ट्रपति के सामने परेड और अगले चुनाव की रणनीति तैयार करने में उन्होंने दिन रात एक कर दिया. नीतीश कुमार से उनके पहले भी संबंध रहे थे. इस दौरान दोनों के संबंधों में और भी मजबूती आयी और भाजपा व जदयू गठबंधन भी मजबूत हुआ.
नवंबर, 2005 के चुनाव में जदयू में नीतीश कुमार को नेता बनाये जाने को लेकर एक स्वर नहीं था. जाॅर्ज और दिग्विजय नीतीश कुमार को चुनाव के पहले नेता बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे. वह लोग बिना नेता घोषित किये ही चुनाव में जाने को राजी थे. मुझे लगा कि बिना नेता की घोषणा किये चुनाव में जाने से फरवरी की तरह नुकसान हो जायेगा.
इसलिए प्रेस काॅन्फ्रेंस बुलाकर मैंने बिना किसी संकोच यह घोषणा कर दी कि चुनाव नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री मान कर उनके नेतृत्व में लड़ा जायेगा. मेरी इस घोषणा में अरुण जेटली की सहमति थी. वह भी यही चाहते थे.
जेटली बड़े दिलवाले नेता थे. एक बार चुनाव के दौरान उन्हें पटना में मौर्या अौर चाणक्या होटल में जगह नहीं मिल पायी. उन्हें पाटलिपुत्र होटल में ठहरना पड़ा. होटल के कमरे और उनके बेड पर भी कार्यकर्ताओं का जमावड़ा लगा रहता था. एक-दो दिनों के बाद जब मौर्या होटल में जगह मिल गयी तो हम लोग उनसे बार-बार अनुरोध करते रह गये, पर वह वहां नहीं गये. पाटलिपुत्र होटल के छोटे कमरे में ही महीना-डेढ़ महीना गुजार दिया.
कभी गाड़ी नहीं मिली तो पैदल ही पार्टी कार्यालय पहुंचने में हिचक नहीं दिखायी. जबकि, वह देश के बड़े वकील थे. उनकी गिनती दिल्ली के सबसे पोपुलर नेताओं में होती थी और वह दिल्ली के सबसे बड़े आयकर दाता थे. करोड़ों रुपये की उनकी आमदनी थी, पर इस बात का जरा सा भी अहसास नहीं होने देते थे.
जेटली ने बिहार की जाति आधारित राजनीति और डायनेमिक्स को खूब समझा. यही कारण था कि नवंबर, 2005 के चुनाव में टिकट बंटवारे से सरकार बनने के बाद मंत्रियों के चयन में उन्होंने इसका पूरा ख्याल रखा.
जेटली जी बिहार के हजारों कार्यकर्ताओं को नाम से जानते थे. वह कहते थे कि बिहार के कार्यकर्ताओं में इतनी राजनीतिक समझदारी होती है, जितनी दूसरे राज्य के कार्यकर्ताओं में नहीं होती.
2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित बिहार पैकेज बनाने में भी अरुण जेटली का रोल रहा था. उनकी सलाह से ही सारे निर्णय लिये गये.
नीतीश कुमार जब भी दिल्ली जाते, उनसे अवश्य मुलाकात करते. बीच में जब दोनों दलों के बीच गठबंधन नहीं रह गया था, तब भी दोनों के बीच संबंध रहा. इस बात को लेकर भाजपा में सवाल भी उठता रहा. पर, उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की. 2009 में भोज प्रकरण के बाद दोनों दलों में कुछ तल्ल्खी आयी. इसके बाद भी नीतीश कुमार और अरुण जेटली में संबंध बना रहा. जेटली ने दोनों दलों के बीच उपजे इस विवाद को सलटाने में बड़ी भूमिका निभायी. उन्हीं के चलते 2010 में गठबंधन टूटते-टूटते बचा.
वह जब भी बिहार आते, दिल्ली का गोपाला रसगुल्ले की दुकान से नीतीश कुमार के लिए रसगुल्ला लाना नहीं भूलते. संजय झा दोनों नेताओं के बीच कड़ी की भूमिका निभाते थे.
बिहार के युवा नेताओं से उन्हें बहुत मोह और प्यार था. किसी के पारिवारिक जीवन में आयी कठिनाइयों को उन्होंने हमेशा दूर किया. एक बड़े नेता के रिश्तेदार की शादी के मौके पर चेक से उन्होंने मदद की. अंतिम बार वह मेरे बेटे की शादी के मौके पर तीन दिसंबर, 2017 को पटना आये थे.