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कर्मियों के सेवांत लाभ भुगतान की प्रक्रिया में सुगमता जरूरी

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक बिहार में लोक सेवा अधिकार कानून लागू है़ इससे लोगों को एक हद तक लाभ भी मिल रहा है, ऐसी खबर यदा-कदा मिलती रहती है़ हाल में पटना नगर निगम ने मकान के नक्शे के मामले में भी उस कानून के इस्तेमाल का निर्णय किया है़ यह एक सराहनीय कदम है़ […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
बिहार में लोक सेवा अधिकार कानून लागू है़ इससे लोगों को एक हद तक लाभ भी मिल रहा है, ऐसी खबर यदा-कदा मिलती रहती है़ हाल में पटना नगर निगम ने मकान के नक्शे के मामले में भी उस कानून के इस्तेमाल का निर्णय किया है़
यह एक सराहनीय कदम है़ बीस दिनों के अंदर यदि नक्शा पास नहीं होगा तो निगम के अधिकारी उसका जवाब देंगे. कारण बतायेंगे. यदि अफसर का जवाब संतोषप्रद नहीं हुआ तो उन पर कार्रवाई हो सकती है. यदि इस कानून का सही व कारगर इस्तेमाल हो तो संबंधित लोगों को बड़ी राहत होगी. महानगर बनते पटना का विकास भी तेज होगा. पता नहीं, राज्य सरकार के कर्मचारियों के सेवांत लाभ के भुगतान पर भी यह कानून को लागू होता है या नहीं.
यदि लागू नहीं होता है तो तुरंत लागू किया जाना चाहिए. सबसे दुखद स्थिति यह है कि जो कर्मचारी वर्षों तक बगल की कुर्सी पर बैठकर काम कर चुका होता है, उसके रिटायर्ड होते ही उस सहकर्मी का रुख भी अचानक उसके प्रति बदल जाता है. मित्रवत संबंध व्यावसायिक रिश्ते में परिवर्तित हो जाता है. अपवादों की बात अलग है. सेवांत लाभ के मामले में इसके लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं. इस मद में भुगतान के लिए भी नजराना-शुकराना का प्रतिशत तय है. रिटायर्ड सरकारी सेवक भी लाचार हो जाता है.
यह और बात है कि जब तक वह खुद पावर में होता है, उससे भी इस मामले में रहम की उम्मीद कोई नहीं करता. इस मामले में भी अपवाद होते ही हैं. यह सिलसिला दशकों से जारी है. किसी सरकारी सेवक के रिटायर्ड होने के बाद बीस दिनों या एक खास समय सीमा के भीतर रिश्वत के बिना उसके सेवांत लाभ का भुगतान हो जाये तो उस सेवानिवृत्त कर्मचारी का परिवार सरकार को दुआएं देगा. सेवांत लाभ भुगतान को लोक सेवा अधिकार कानून के तहत ला दिया जाये तो यह संभव हो सकेगा.
निजी प्रयास को सरकारी मदद जरूरी : करीब दो साल पहले पटना जिले के फुलवारीशरीफ अंचल के कोरजी गांव के लोगों ने मुफ्त में अपनी जमीन देकर मिट्टी की एक सड़क बनायी. करीब 700 मीटर की सड़क पर मिट्टी डालने का खर्च भी खुद ग्रामीणों ने ही उठाया. यह सार्वजनिक काम एनएच-98 तक पहुंचने की ग्रामीणों की कोशिश के तहत हुआ. मात्र इतने ही प्रयास के बाद मिट्टी की उस सड़क के किनारे नये-नये मकान बनने लगे.
ग्रामीणों ने उम्मीद की कि कोई सरकारी एजेंसी उस सड़क पर आगे का काम करा देगी. यानी ईंटकरण या पक्की का काम अब हो जायेगा. पर, अब तक ऐसा नहीं हुआ. होने की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है. हो जाता तो जिले व राज्य के अन्य स्थानों में भी ऐसे निजी प्रयासों को बल मिलता. लोगबाग अपनी जमीन देकर मिट्टी का काम करा देते. बाद में सरकार उसका पक्कीकरण कर देती. इस तरह सरकार का ही काम हल्का होता.
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना : प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत जमीन के अधिग्रहण का प्रावधान ही नहीं है. क्योंकि इस योजना के मद में केंद्र सरकार इतने पैसे आवंटित ही नहीं करती जिससे सड़क भी बने और उसके लिए पहले जमीन का अधिग्रहण भी हो. माना जाता है कि इस योजना के तहत पहले से मौजूद कच्ची सड़कों का ही पक्कीकरण कर दिया जायेगा. इसलिए यदा-कदा जहां-तहां जबरन किसी की निजी जमीन पर कब्जा करके सड़क बना दी जाती है.
कुछ साल पहले बिहार से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की जमीन पर ऐसे ही कब्जा करके उस पर प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क बना दी गयी थी. न अधिग्रहण और न ही मुआवजा. उस पूर्व मंत्री ने केस कर दिया. हाईकोर्ट ने सरकार से कहा कि या तो मुआवजा दो या सड़क उजाड़ो. केंद्र सरकार ने कहा कि हम उजाड़ लेंगे. सड़क उजाड़ दी गयी. दूसरी ओर कोरजी के किसान जब अपनी कीमती जमीन दे देते हैं तो कोई सरकारी एजेंसी मदद में नहीं आती. कोरजी की वह मिट्टी वाली सड़क बरसात में टूट रही है. अगली बरसात शायद ही झेल पाये.
सरकारी उपक्रमों की हालत : यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंची है कि पेशेवर तरीके से होटलों को चलाना सरकार के बूते की बात नहीं है. इसलिए केंद्र सरकार ने पटना के होटल पाटलिपुत्र अशोक को बिहार सरकार के हवाले कर दिया है. यह होटल किस तरह गैर पेशेवर तरीके से चल रहा था, उसका उदाहरण एक पत्रकार ने दिया.
करीब बारह साल पहले उसने इस होटल में अपने एक परिजन की शादी आयोजित की. होटल ने एक दिन पहले का बना बासी मुर्गा परोस दिया. एक अतिथि ने सलाह दी कि इसे पैसे मत दीजिए. पर, पत्रकार ने कहा कि पैसे तो दे ही दूंगा. पर आगे से लोगों को सलाह दूंगा कि वे इस होटल से दूर ही रहें. क्योंकि पैसे नहीं देने पर वह आरोप लगायेगा कि पत्रकार होने का गलत फायदा उठा रहे हैं.
इस तरह चल रहा था यह होटल. 1974 में स्थापित होटल शुरुआती वर्षों में तो ठीक-ठाक चला. पर, धीरे-धीरे चीजें बिगड़ने लगीं. दरअसल, सार्वजनिक उपक्रमों में जो कठोर ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की जो जरूरत पड़ती है, उसका जब सरकार में ही घोर कमी है तो उसके उपक्रमों में वह कहां से आयेगी.
भूली-बिसरी याद : आईसीएस अफसर जगदीश चंद्र माथुर की पदस्थापना जब संबल पुर हुई तो उन्होंने ‘कोणार्क’ नाटक लिख दिया. वह नाटक इतना प्रभावी था कि हिंदी रंगमंचों पर छाया रहता था. ओडिशा-बिहार काॅडर के 1941 बैच के अफसर माथुर की हाजीपुर में तैनाती हुई तो उन्होंने वैशाली में सालाना मेला लगवाना शुरू किया.
हेडमास्टर के पुत्र माथुर जब बिहार सरकार के शिक्षा सचिव बने तो उन्होंने बिहार राष्ट्र भाषा परिषद व नेतरहाट आवासीय विद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया. आकाशवाणी के महानिदेशक हुए तो एआईआर का नाम आकाशवाणी रख दिया. और न जाने कितनी उपलब्धियां हैं उनके नाम. उनके बारे में डाॅ समर बहादुर सिंह लिखते हैं कि ‘आकाशवाणी का कोई पहलू ऐसा नहीं था जिसे माथुर की प्रतिभा ने सजाया संवारा न हो.’ 16 जुलाई 1917 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में जन्मे माथुर का 14 मई 1978 को निधन हो गया.
सरकारी सेवा से रिटायर्ड होने के बाद उन्हें प्रयाग, शिमला और जयपुर विश्वविद्यालयों के कुलपति बनने का बारी-बारी से आॅफर मिला, पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया. हिंदी के लेखक और नाटककार माथुर की कई
रचनाएं चर्चित हुईं. संस्कृत-पाली के विद्वान और बौद्ध दर्शन के अध्येता जगदीश चंद्र माथुर सफल प्रशासक भी थे. उन्होंने अपने एक अधीनस्थ से एक बार कहा था कि ‘प्रशासक को व्यावहारिक होना चाहिए. परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालते रहना चाहिए. सेवा पहले और स्वार्थवाद बाद में.
प्रशासक संतुलित, मितभाषी, दक्ष और उदार हो. किंतु साथ ही अनुशासनप्रिय भी. यथासंभव वह किसी को दंडित न करें. किंतु दंड का भय जरूर सहकर्मियों पर बना रहे.’ बिहार की पिछली पीढ़ी के लोग आदर से माथुर साहब का नाम लेते थे.
और अंत में : इस विकासशील देश खासकर बिहार में कहीं भी सरकारी या निजी निर्माण होते देखना बहुत अच्छा लगता है. साथ ही किसी सार्वजनिक जमीन से अतिक्रमण हटते देखना तो उससे भी अधिक अच्छा लगता है. पटना में ये दोनों काम इन दिनों हो रहे हैं. जिला मुख्यालयों में भी अतिक्रमण हटाओ अभियान इसी तरह तेज गति से चलाने की जरूरत महसूस की जा रही है.

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