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विश्व पार्यावरण दिवस : बढ़ती आबादी जलस्रोतों के लिए बनी मुसीबत
बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक अनाज की जरूरत होती है. ऐसे में खेती के लिए भी अधिक जमीन की जरूरत होती है.इसके लिए किसान बड़े-बड़े जलस्रोतों को धीरे-धीरे भर रहे हैं, जिससे तालाब और पोखर कृत्रिम रूप से सूखते जा रहे हैं. इसके अलावा रिहायशी इलाकों में रहने के लिए […]
बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक अनाज की जरूरत होती है. ऐसे में खेती के लिए भी अधिक जमीन की जरूरत होती है.इसके लिए किसान बड़े-बड़े जलस्रोतों को धीरे-धीरे भर रहे हैं, जिससे तालाब और पोखर कृत्रिम रूप से सूखते जा रहे हैं. इसके अलावा रिहायशी इलाकों में रहने के लिए जमीन की कमी के कारण भी जलस्रोतों पर भी मार पड़ रही है. इसका सीधा असर यहां की उस जैवविविधता पर पड़ रहा है, जो तालाब के आसपास पनपती है.
बिहार के पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी मुसीबत उसकी आबादी है. बिहार न केवल आबादी के लिहाज सेसमूचे प्रदेश में सबसे घना है, बल्कि उसकी जनसंख्या वृद्धि दर भी देश में सबसे ज्यादा है. यही वजह है कि प्राकृतिक संसाधनों पर आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है. इसका सीधा असर बिहार की सबसे बड़ी ताकत जल स्रोतों की संख्या और उसके अस्तित्व पर पड़ा है. यह असर पूरी तरह नकारात्मक है.
आबादी के लिए आवास और उसकी दूसरी जरूरतों के बढ़ते भार के चलते बिहार के करीब 4000 से अधिक वेट लैंड्स ( नम या आद्र भूमि) में से 1000 वेट लैंड्स तो अपना अस्तित्व खो चुके हैं. शेष 3000 में आधे से अधिक वेट लैंड्स संकट ग्रस्त है. बात साफ है कि संतुलित पर्यावरण के लिए बिहार की अनियंत्रित बढ़ती आबादी सबसे बड़ी दुश्मन है. बता दें कि नम भूमि को जैव विविधता का स्वर्ग कहा जाता है.
एक्सपर्ट व्यू
निश्चित तौर पर बिहार का पर्यावरण भी क्लाइमेट चेंजिंग से सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है. हालांकि, सबसे बड़ा खतरा अनियंत्रित आबादी से है. इस आबादी का सीधा असर जल स्रोतों पर है. खासतौर पर नम भूमि को खतरा है. वह दिखाई भी दे रहा है. हालांकि, सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है, लेकिन आबादी को नियंत्रित करना ही होगा.
भारत ज्योति, सहमुख्य वन्य प्राणी प्रतिपालक, बिहार
कोसी क्षेत्र के अधिकतर वेट लैंड्स
जानकारों का कहना है कि बिहार जनसंख्या विस्फोट के दौर में पहुंचने वाला है. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार में प्रति वर्ग किलोमीटर आबादी 1102 व्यक्ति है. यह देश में सबसे ज्यादा है. जनसंख्या वृद्धि दर भी 25 फीसदी से अधिक है.
चालू दशक में आबादी के घनत्व का विस्तार रुका नहीं है़ अलबत्ता दूसरे बड़े राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर 21 से 23 फीसदी के बीच है. कोसी क्षेत्र को ही लें, यहां के अधिकतर वेट लैंड्स तबाह हो चुके हैं. वेट लैंड्स में छोटे बड़े झील, ताल, तलैया, छोटे-बड़े कैचमेंट आदि शामिल होते हैं. कोसी की तरह प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों की नम भूमियों का भी यही हाल है.
बढ़ती आबादी का आलम यह है कि तमाम भयंकर आपदाओं के बाद भी गंगा और दूसरी नदियों की गोद में गांवों की संख्या लगातार बढ़ रही है. जानकारी के मुताबिक 100 हेक्टेयर से अधिक आबादी के वेट लैंड्स की संख्या 100 से अधिक है. अब तक सुरक्षित इन वेट लैंड्स को आगामी दशक में सबसे ज्यादा खतरा है, क्योंकि दूर जंगल में आबादी का विस्तार होता जा रहा है. इनमें कुछ शहर के विस्तार में खो से गये हैं.
मां का दूध भी प्रदूषित
विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की मई 2018 की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि मां का दूध भी प्रदूषित होने लगा है.इसमें कहा गया है कि उपज बढ़ाने के लिए खेती में कीटनाशकों और रसायनों के बेतहाशा इस्तेमाल और उसके फसलों का खाद्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल ही इसके बड़े कारण हैं. मां का प्रदूषित दूध पीने से उसके बच्चे पर बुरा असर पड़ रहा है. दूषित मिट्टी का प्रयोग फलों और सब्जियों के उत्पादन के लिए किया जाता है, जिसमे कुछ जहरीले पदार्थ भी शामिल हो सकते हैं.
अन्य देशों की हालत
एफएओ के रिपोर्ट के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में करीब 80 हजार स्थान मिट्टी प्रदूषण से प्रभावित हैं. चीन की जमीन का 16 फीसदी हिस्सा और खेती की जाने वाली करीब 19 फीसदी जमीन में मिट्टी प्रदूषण की समस्या है. यूरोपीय और बालकान देशों मे करीब 30 लाख स्थानों पर मिट्टी के प्रदूषित होने के प्रमाण मिले हैं. अमेरिका के करीब 1300 स्थानों पर मिट्टी प्रदूषित पायी गयी है.
मिट्टी प्रदूषण से खेती को हो रहा नुकसान
क्या कहते हैं पर्यावरणविद
पर्यावरणविद और तरुमित्र के संस्थापक फादर डॉ रॉबर्ट अत्तिकल का कहना है कीटनाशक और रासायनिक उर्वरकों के खेती में इस्तेमाल से मिट्टी प्रदूषण का खतरा बढ़ रहा है. मिट्टी से लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण मानव शरीर की आनुवांशिक बनावट प्रभावित हो सकती है. इसके परिणामस्वरूप जन्मजात बीमारियां और लंबे समय के लिए स्वास्थ्य समस्या हो सकती है.
देश के साथ ही देश-दुनिया में मिट्टी प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है. इससे मिट्टी की उर्वरता शक्ति घटने का सीधा नुकसान खेती को हो रहा है. इससे फसल पैदावार की मात्रा भी दिनोंदिन घट रही है. जमीन में बंजरपन प्रवृत्ति भी बढ़ रही है. वहीं मिट्टी के प्रदूषित तत्व जमीन के नीचे जाकर भूजल को भी प्रदूषित कर रहे हैं.
एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में करीब 54,58,000 हेक्टेयर जमीन अपनी विशिष्टता खो चुकी है. पर्यावरणविदों का कहना है कि मिट्टी प्रदूषण के लिए बेतहाशा औद्योगिकीकरण, खनन और खेती में इस्तेमाल हो रहे कीटनाशक और रसायनों की बड़ी भूमिका है. बढ़ते शहरीकरण से इस समस्या में बढ़ोतरी हुयी है.
मिट्टी प्रदूषण
मिट्टी प्रदूषण के कई कारण हैं. इनमें प्रमुख रूप से रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशी का उपयोग, औद्योगिक व बायोमेडिकल कचरा, लैंडफिल से होने वाला रिसाव, घरेलू कूड़ा-कचरा, पॉलीथीन की थैलियां, प्लास्टिक के डिब्बे, अनियंत्रित पशुचारण आदि हैं.
रोकने के उपाय
मिट्टी प्रदूषण रोकने के लिए कुछ उपाय भी किये जा सकते हैं. इनमें कूड़ा-करकट के निस्तारण की व्यवस्था, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशी का उपयोग कम करना, खेती की जैविक विधियों का इस्तेमाल, आमलोगों को मिट्टी प्रदूषण के दुष्प्रभावों की जानकारी देना आदि शामिल हैं.
प्लास्टिक कचरे के ढेर पर बैठी राजधानी
जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण के बाद अब प्लास्टिक प्रदूषण ने चैन छीन लिया है. प्लास्टिकहमारे जीवन में कुछ इस तरह शामिल हुआ है कि इसके बिना शायद ही हम कुछ क्षण रहते हो. यही प्लास्टिक हमारे स्वास्थ्य के साथ ही पूरे वायुमंडल को नुकसान पहुंचा रहा है. पटना की ही बात करें, तो यहां हर माह करीब 50 टन प्लास्टिक का कचरा निकल रहा है. नदी-नालों से होता हुआ यही प्लास्टिक गंगा सहित तमाम नदियों की सेहत खराब कर ही रहा है, समुद्र भी इससे अछूते नहीं रहे हैं.
नष्ट होने में लगते हैं हजार साल
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष अशोक घोष ने बताया कि प्लास्टिक प्राकृतिक रूप से विघटितनहीं होती. इसलिए नदियों, सागरों आदि के जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित करती है. बकौल श्री घोष, प्लास्टिक को खत्म होने में 500 से एक हजार साल लगता है. ऐसे वैज्ञानिकों का मानना है. प्लास्टिक की खोज 27 मार्च, 1933 में हुई थी. हर साल 300 मीलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है.
जलाना सबसे खतरनाक
प्लास्टिक जलाने से डायोक्सिन गैस निकलती है. इससेसांस की बीमारी के साथ ही कैंसर जैसा खतरनाक रोग अपनी चपेट में ले लेता है.
प्लास्टिक को जलाये जाने से निकलने वाली विषाक्त गैसों के परिणाम स्वरूप गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है. इससे शारीरिक विकास में अवरोध व जघन्य रोग होता है. प्लास्टिक को जमीन में डालने से पर्यावरण को हानि पहुंचती है. मिट्टी और भूमिगत जल विषाक्त होने लगता है और धीरे-धीरे पर्यावरण दूषित होने लगता है.
गा़ड़ियों से प्रदूषण बड़ा कारण
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अध्ययन कहता है कि पटना की हवा में पर्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5 और पीएम 10) की मात्रा तय मानक से ज्यादा है. इसका कारण गाड़ियों से निकलने वाला धुआं, धूल और ईंट भट्ठा है.
आप नहीं सुधरे तो बढ़ेगा प्रदूषण
दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में चौथे नंबर पर शुमार पटना में यदि हम और आप नहीं सुधरे तो यहां की हवा और भी प्रदूषित होती जायेगी. हवा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है.
अभी हमारे यहां की एयर क्वालिटी मानक से दस गुणा तक उपर रहती है जबिक पर्यावरणविदों के मुताबिक एयर क्वालिटी इंडेक्स में यदि लेवल 0 से 50 के बीच है तब यह हवा अच्छी यानी बेहद गुणवत्ता युक्त मानी जाती है.
51-100 के बीच आप संतुष्ट होने की स्थिति में रह सकते हैं, 101-200 के लेवल में हल्का प्रदूषित इलाका है. खराब 201-300 के बीच की स्थिति है, बदतर 301-400 के बीच और 401 से 500 के बीच की स्थिति बदतरीन वाली है. यानी स्पष्ट है कि पटना इन पांच दिनों में हल्का प्रदूषित इलाका ही रहा है.
पीएम बदतर
वायु गुणवत्ता के मानकों के मुताबिक हवा में पार्टिकुलेटेड मैटर 2.5 की मात्रा बदतर स्थिति में है. यानी वायु में धूल कणों की मात्रा ज्यादा है. पीएम 2.5 60 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर होनी चाहिए. लेकिन इन पांच दिनों में पटना में 2.5 की मात्रा दो गुणा से लेकर चार गुणा अधिक रहा.
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