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बिहार : दिव्यांग होकर भी भर रहीं सपनों में रंग
िवपरीत परिस्थितियों के बावजूद महिलाओं ने दिखाया आगे बढ़ने का जज्बा ऐसी कई दिव्यांग महिलाएं और लड़कियां हैं जो कठिन हालात के बावजूद कामयाबी के शिखर पर हैं और दूसरों की भी आगे बढ़ने में मदद कर रही हैं. इनमें कुछ अकेले तो कुछ पति और परिवार के सहयोग से की दूसरों को राह दिखा […]
िवपरीत परिस्थितियों के बावजूद महिलाओं ने दिखाया आगे बढ़ने का जज्बा
ऐसी कई दिव्यांग महिलाएं और लड़कियां हैं जो कठिन हालात के बावजूद कामयाबी के शिखर पर हैं और दूसरों की भी आगे बढ़ने में मदद कर रही हैं. इनमें कुछ अकेले तो कुछ पति और परिवार के सहयोग से की दूसरों को राह दिखा रही हैं.
नृत्य -संगीत सीख बनायी राह
दिव्यांग होने के बाद भी दूसरों को राह दिखाने वालों में दानापुर की खुशबू गुप्ता भी शामिल हैं, जो दाहिने पैर से डिसेबल होने के बाद भी संगीत सिखाती हैं और आगे बढ़ने सीख देती हैं. खुशबू बताती हैं, पहले यह सोच थी कि ऊपर वाले ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? लेकिन ऐसा अब नहीं है.
अब मैं समर्थ हूं. वह कहती हैं, जब तक मेरी दादी थी तो मैं कहीं भी जाने के लिए दादी का साथ लेती थी. बहुत डर था मेरे अंदर, लेकिन दादी के देहांत के बाद मैंने खुद के पैरों पर खड़ा होने का निश्चय किया और आज यहां हूं.
वह बताती हैं, अपने अधिकारों के लिए सबसे पहले मैंने दिव्यांग जनों की मदद करने वाले एक मंच से जुड़ने को सोचा. वहां जुड़कर मैंने अपने अधिकारों के बारे में जाना. इसी दौरान मेरे मन में संगीत सीखने की इच्छा शुरू हुई और करीब 2005 में मैंने संगीत सीखना शुरू किया और नृत्य और वोकल दोनों की सीखा.
फिर 2008 से बच्चों को नृत्य-संगीत सीखाना शुरू किया. अभी मेरे पास करीब 20 बच्चे रोज संगीत सीखने आते हैं. इसके अलावा एक स्कूल में टीचर के रूप में ज्वाइन किया और वहां भी बच्चों को संगीत सिखाती हूं. वह कहती हैं, कुछ करना है तो केवल हिम्मत होनी चाहिए. इससे रास्ते सुगम होते हैं और मंजिल जरूर मिलती है.
जहां भी संभव, वहां मदद
पटना के किदवईपुरी की रहने वाली रीतू चौबे भी वैसी ही महिला हैं जो कठिन हालात में भी लोगों को आगे बढ़ने की सीख देती हैं और मदद करती हैं. वह कहती हैं, 2004 में आर्थिक परेशानी को दूर करने के लिए मैंने पहली बार मात्र नौ सौ रुपये वेतन पर काउंसेलर का जॉब ज्वाइन किया. तब मैं अपने घर मोहनिया रहा करती थी.
लेकिन जॉब करने से भी हालात में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ. फिर हम 2009 में पटना आ गये. पटना अाने के बाद भी कई जगहों पर दिव्यांगता आड़े आ रही थी. कही भी जल्दी बात नहीं बनती थी. बहुत कोशिश करने पर एक मल्टीनेशनल कंपनी के सीएंडएफ में जॉब मिली.
इससे थोड़ा सुधार होना शुरू हुआ. वह कहती हैं, जब जॉब के लिए कोशिश करती थी तब दिक्कत से गुजरती थी. तब ही सोच ली थी कि ऐसी परेशानी दूसरों को न हो, इसके लिए पहल करूंगी. 2012-13 में एक एनजीओ से जुड़ गयी. वहां दिव्यांगों के लिए काम करती रही. फिर मैंने अपना एनजीओ शुरू किया और खुद को इस काम के लिए समर्पित कर दिया. वह कहती हैं, मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि जो लोग मेरे पास आ रहे हैं उनको पैसे देकर काम शुरू करा सकूं.
इसका भी मैंने रास्ता निकाला और जो मेरे जान-पहचान के थे, उनसे मदद मांगने लगी. इसमें कुछ का काम बनता था, कुछ का नहीं, लेकिन सुकून मिला कि कुछ को हुआ. क्योंकि जब वह अपने पैरों पर खड़े होते हैं तो अच्छा लगता है. अब मेरा उद्देश्य अपने जैसों की मदद करने का है. मैं अपनी जानने वालों की मदद से फिनांशियल प्राॅब्लम को दूर करने के साथ कम्यूनिकेशन प्रॉब्लम को दूर करने की पहल करती हूं, ताकि वह किसी के आगे हाथ न फैला सके.
दिव्यांगों की मदद को बनाया मंच
हमें जीवन में बहुत दर्द मिलता है. मैंने उसी दर्द से सीख लेकर अपने जैसे लोगों की मदद करने का ठान लिया. यह कहना है दिव्यांग वैष्णवी का. वैष्णवी कहती हैं, जब मैंने काम शुरू किया तो कई तरह की दिक्कतें सामने आयीं. इसमें सबसे बड़ी दिक्कत थी
हमें प्रमाणपत्र नहीं मिलते थे. मैंने इसके लिए पहल शुरू किया और विभिन्न जिलाें में ट्रेनिंग आयोजित करने की पहल करने लगी, उसी दौरान कई दिव्यांग लड़कियों से मुलाकात हुई और उनकी मदद के लिए मैंने हाथ बढ़ा दिया. वह कहती हैं, सबसे बड़ी दुविधा यह थी कि इनके परिवार को समझाना. हालांकि मैंने हिम्मत नहीं हारी और बात की और अपने साथ सभी को जोड़ने की पहल करने लगी.
कई लेवल पर हुई परेशानी
वैष्णवी कहती हैं, परेशानी हर लेवल पर हुई. हालांकि घरवालों ने पूरा सपोर्ट किया लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत हुई आने जाने को लेकर. ऑफिस में जाने पर सरकारी अधिकारी भी साथ नहीं देते थे. वह यही समझते थे कि इनको कोई सुविधा चाहिए. जबकि हमें मान-सम्मान की जरूरत होती थी. दिव्यांग लड़कियों के घरवालों को भी समझाने में दिक्कत होती थी.
देती है योजनाओं की जानकारी
वह कहती हैं, राष्ट्रीय विक्लांग मंच से जुड़ने के बाद मुझे काम करने में थोड़ी आसानी हुई और मैंने स्त्री और पुरुष दोनों दिव्यांगों को जोड़ने के लिए पहल की. उनको योजनाओं की जानकारी देने लगी. साथ ही कानूनी मदद के लिए भी पहल की. जरूरत पड़ने पर साथ जाने लगी. वह कहती हैं, सूचनाओं को प्रदान करना इसलिए शुरू किया कि वे अपने अधिकार को समझें. आज भी जहां जरूरत पड़ती है, जाती हूं.
जीविका से जोड़ने की पहल
वैष्णवी बताती हैं, अब तक करीब चार हजार लोगों की मदद कर चुकी हूं. इनमें से कई लोग मेरे साथ दूसरों का भी साथ देते हैं. राज्य के विभिन्न हिस्सों में बने स्वयं सहायता ग्रुपों से इनको जोड़ने की पहल करती हूं. इसके अलावा विवाह नाम से एक और कार्यक्रम भी शुरू किया है, जिसमें लड़का-लड़की की काउंसेलिंग कराके कोर्ट की मदद से शादी भी करायी जाती है.
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