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बिहार : मनरेगा को किसानों से जोड़ने की सलाह पर विचार जरूरी
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक देश के कुछ हिस्सों में कृषि संकट, राजनीतिक संकट का स्वरूप ग्रहण कर रहा है़ यह संकट बिहार में भी है. पर अभी प्रारंभिक अवस्था में है़ बिहार के किसान नीतीश सरकार से इस बात से तो खुश हैं कि कानून-व्यवस्था नब्बे के दशक की अपेक्षा बेहतर है और विकास भी […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
देश के कुछ हिस्सों में कृषि संकट, राजनीतिक संकट का स्वरूप ग्रहण कर रहा है़ यह संकट बिहार में भी है. पर अभी प्रारंभिक अवस्था में है़ बिहार के किसान नीतीश सरकार से इस बात से तो खुश हैं कि कानून-व्यवस्था नब्बे के दशक की अपेक्षा बेहतर है और विकास भी हो रहे हैं. पर जरूरत के अनुसार उन्हें मजदूर नहीं मिलने के कारण वे दुखी भी हैं. कृषि संकट का सबसे बड़ा कारण यह है कि किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहा है.
खेती महंगी होती जा रही है. घाटे का सौदा है. कुछ किसान अपने कुछ खेत परती छोड़ दे रहे हैं. अनाज के लिए गोदाम और कोल्ड स्टोरेज की भारी कमी के कारण किसानों के लिए अपनी उपज को अधिक दिनों तक अपने पास रखना कठिन हो रहा है. जल्द बेचने के कारण दाम कम मिल रहे हैं. औने-पौने दाम में उपज बेचनी पड़ रही है. उधर खेती में लागत खर्च बढ़ता जा रहा है. मनरेगा के कारण बुवाई और कटाई के मौसम में मजदूर कम मिल रहे हैं या नहीं मिलते हैं.
2011 में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सलाह दी थी कि बुवाई और कटाई के समय मनरेगा को स्थगित रखा जाना चाहिए ताकि किसानों को आसानी से मजदूर मिल सकें और खेती के काम ठीक से हो सके. पर प्रधानमंत्री ने उनकी सलाह नहीं मांनी. प्रधानमंत्री को लगा होगा कि शायद इससे मजदूरों को नुकसान होगा. या फिर मनरेगा की ‘मलाई’ खाने वाले बिचैलियों ने शरद पवार की सलाह को लागू नहीं होने दिया होगा! पर इसका एक उपाय यह भी हो सकता है.
सरकार मनरेगा से जुड़े मजदूरों को खेती के दिनों में किसानों से जुड़ जाने की छूट दे. यानी मनरेगा के मजदूर गैर सरकारी जमीन में भी काम करें. इसके लिए नियम बदले जाएं. अभी मनरेगा मजदूर सरकारी जमीन में ही काम कर सकते हैं. उन मजदूरों को मजदूरी के रूप में कुछ पैसे सरकार दे और कुछ किसान.
दोनों मिलकर उन्हें इतने पैसे मिल जाएं ताकि वह राशि मनरेगा के तहत फिलहाल मिलने वाली राशि से अधिक हो जाए. इस साल मनरेगा पर केंद्रीय बजट 48 हजार करोड़ रुपये का था. यदि किसान भी कुछ पैसे मजदूरों को देने लगेंगे तो इस मद में सरकारी बजट खर्च घट सकता है. इससे मजदूरों को भी लाभ होगा और किसानों को भी. खेती बर्बाद नहीं होगी और खेती से जुड़े परिवारों के नौजवान सरकारी नौकरियों के लिए सरकार पर अधिक दबाव नहीं डालेंगे.
राज्यसभा की सदस्यता के लिए इतना हंगामा क्यों? : आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास ऐसे उच्च सदन में जाने से लिए बेचैन हैं जहां गत माह ‘भारतरत्न’ को भी बोलने का मौका नहीं मिल सका. सचिन तेंदुलकर को अपनी एक जरूरी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा.
कुमार विश्वास ‘भारतरत्न’ तो हैं नहीं. विश्वास जी, पता नहीं, राज्यसभा में चले भी जाइएगा तो कितना बोल पाइएगा? आप एक अच्छे कवि हैं. श्रोताआें को मंचों से आनंदित करते रहिए. इस गलतफहमी में मत रहिए कि आपके कारण लोग आप को वोट देते हैं. आम धारणा यह है कि ‘आप’ का जो भी वोट है, वह केजरीवाल के कारण है. राज्यसभा की सदस्यता चार्टर्ड एकांउटेंट और व्यापारियों के लिए छोड़ दीजिए. एक व्यक्ति ‘आप’ के लिए चंदा का जुगाड़ करेंगे और दूसरे उस चंदे का एकाउंट ठीक रखेंगे.
यदि ‘आप’ या उसके किसी खास बड़े नेता की कानूनी परेशानियां बढ़ने लगेंंगी तो अगली बार केजरीवाल साहब किसी बड़े वकील को राज्यसभा में भेज सकते हैं. आप की सुंदर कविताओं से न तो पार्टी को चंदा मिलेगा और न ही चुनाव आयोग संतुष्ट होगा. याद रहे कि चुनाव आयोग बार-बार ‘आप’ से कह रहा है कि आप अपने करोड़ों के चंदे का हिसाब तो दे दीजिए.
एक भूली बिसरी याद : अब तो किसी सजायाफ्ता को चुनावी टिकट से वंचित करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में प्रावधान कर दिया गया है. पर 1969 में तो कांग्रेस ने बिहार के अपने ऐसे छह प्रमुख नेताओं के टिकट काट दिये थे जिनके खिलाफ सिर्फ न्यायिक जांच आयोग गठित किया गया था. यानी 1969 की कांग्रेस आज की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों की अपेक्षा लोकलाज का अधिक ध्यान रखती थी. हालांकि अब तो कांग्रेस का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है.
जिन छह नेताओं के टिकट कटे थे, उनके नाम हैं केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, राम लखन सिंह यादव, अम्बिका शरण सिंह और राघवेंद्र नारायण सिंह. उपर्युक्त नेताओं के खिलाफ सन 1967 में गठित गैर कांग्रेसी सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बनाया था.
आयोग के अध्यक्ष थे सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके टीएल बेंकटरामा अय्यर. उन नेताओं के खिलाफ किस तरह के आरोप थे और उनके खिलाफ आयोग ने क्या रपट दी, यह इस लेख का विषय नहीं है. अभी अवसर सिर्फ टिकट कटने की एक बड़ी कहानी कहने का है. इस संबंध में पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह ने ‘मेरी यादें मेरी भूलें ’में लिखा है कि ‘अप्रैल 1969 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन फरीदाबाद में हुआ.
उससे पहले आम चुनाव हो गया था. उस चुनाव के लिए जिन उम्मीदवारों का चयन हुआ, उनमें केबी सहाय,महेश बाबू,राम लखन सिंह यादव, अम्बिका बाबू और राघवेंद्र बाबू और मुझे टिकट नहीं दिये गये. क्योंकि हमलोगों पर आरोप लगाकर अय्यर कमीशन गठित कर दिया था. अभी तो जांच चल ही रही थी कि टिकट काट दिये गये.
इसके अलावा हमलोगों को टिकट न देने का उद्देश्य यह भी था कि बिहार कांग्रेस के नेतत्व में परिवर्तन किया जाये. कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेतागण डाॅ राम सुभग सिंह को बिहार में नेता बनाना चाहते थे.’ जो बातें सत्येंद्र बाबू ने नहीं लिखी, वह यह है कि दरअसल स्वतंत्रता सेनानी व केंद्र में लंबे समय तक मंत्री रहे डाॅ राम सुभग सिंह स्वच्छ छवि के नेता थे. उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग करके कोई संपत्ति बनायी हो, ऐसी कोई जानकारी अब तक इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है. इस पहल के लिए उस समय की कांग्रेस की प्रशंसा की जानी चाहिए.
पता विहीनता की समस्या : सरकार के डाक महकमे की नजर में मेरा कोई पता नहीं है. दरअसल पिछले दिनों जयपुर के एक प्रकाशक ने मेरे नाम एक पुस्तक भेजी. पुस्तक रजिस्टर्ड पोस्ट के जरिये भेजी गयी थी. उसका नंबर है सीआर 147213010 आईएन. वह किताब जब कई दिनों के बाद भी मेरे यहां नहीं पहुंची तो मैंने जयपुर फोन किया. प्रकाशक ने मुझे बताया कि डाक महकमे को आपके घर का पता नहीं मिला, इसलिए वह किताब लौट आयी है. प्रकाशक ने रसीद की फोटो काॅपी भी व्हाट्स एप पर भेज दी है. प्रकाशक ने न सिर्फ सही पता लिखा है, बल्कि मेरा मोबाइल नंबर और पिन कोड भी लिख दिया था. यह सब रसीद में भी दर्ज है.
याद रहे कि पटना के पास के खगौल के नजदीक के गांव में स्थित मेरे घर अक्सर सामान्य डाक व रजिस्टर्ड लेटर आते रहते हैं. कभी-कभी प्राइवेट कूरियर वाले भी पहुंच जाते हैं. पर इस बार क्या हुआ? क्या कोई संबंधित डाक अधिकारी इसकी पड़ताल करेंगे? डाक विभाग एक विश्वसनीय महकमा माना जाता है. उसे अपनी विश्वसनीयता बनाये रखनी चाहिए अन्यथा प्राइवेट कूरियर की पहले से ही चांदी है और भी हो जायेगी.
और अंत में : मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि अपराध नियंत्रण के लिए राज मार्गों पर सीसीटीवी कैमरे लगाये जाएं. यह बहुत अच्छा कदम है. पर कैमरे लगाने के साथ ही शासन को चाहिए कि वह ऐसे दस्ते भी बनाये जो निरंतर यह देखता रहे कि वे कैमरे काम कर भी रहे हैं या नहीं. अन्यथा, यह प्रयास भी विफल हो जायेगा.
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