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लालू प्रसाद यादव : कैसे सामाजिक न्याय का योद्धा सत्तालाेलुप मसखरा बन गया?

पुष्यमित्र अगले साल सत्तर की दहलीज को छूने वाले लालू प्रसाद यादव कभी-कभी एकांत में निश्चित रूप से सोचते होंगे कि काश यह चारा घोटाला नहीं होता तो उनके राजनीतिक जीवन की दिशा और दशा ही कुछ और होती. बिहार ही नहीं देश के सबसे विवादास्पद और सबसे मशहूर राजनेता लालू के राजनीतिक जीवन पर […]


पुष्यमित्र

अगले साल सत्तर की दहलीज को छूने वाले लालू प्रसाद यादव कभी-कभी एकांत में निश्चित रूप से सोचते होंगे कि काश यह चारा घोटाला नहीं होता तो उनके राजनीतिक जीवन की दिशा और दशा ही कुछ और होती. बिहार ही नहीं देश के सबसे विवादास्पद और सबसे मशहूर राजनेता लालू के राजनीतिक जीवन पर चारा घोटाला आज किसी ग्रहण की तरह छाया नजर आता है. अपने 40 साल के राजनीतिक जीवन में लालू ने 21 साल तक इस घोटाले और इससे जुड़े मुकदमे से जूझने और इस कशमकश में अपनी पार्टी और अपने परिवार को बचाने में खपा दिया. हम जब भी लालू के राजनीतिक जीवन पर विचार करेंगे तो यह दो-फाड़ नजर आयेगा, एक चारा घोटाला से पहले, दूसरा चारा घोटाला के बाद. ऐसे में यह सवाल मौजू है कि क्या वह चारा घोटाला की अदालती कार्रवाइयां ही थी, जिसने एक जमाने में सामाजिक न्याय के योद्धा रहे लालू को एक सत्तालोलुप और अवसरवादी राजनेता में बदल दिया.

ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि 1977 में पहली दफा छपरा लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने वाले लालू की राजनीति 1996 तक अमूमन निर्विवाद रहा. इस बीचमें कभी राज्य में तो कभी केंद्र में सक्रिय रहे. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद वे बिहार विधानसभा में विपक्षी दल के नेता बने तो अगले ही साल वीपी सिंह की भ्रष्टाचार विरोधी लहर ने उन्हें बिहार का सीएम बना दिया. यह सच है कि लालू की बिहारी राजनीति में पकड़ इसलिए बनी कि वह बिहार की सबसे बड़ी पिछड़ी जाति यादव समुदाय से आते थे. इसके अलावा वे एक अन्य पिछडे नेता कर्पूरी ठाकुर की तरह सीधे-सादे नहीं थे कि जिन्हें राजनीतिक दांव में पछाड़ दिया जाये. वे लड़ना-भिड़ना जानते थे. मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठते ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वे मरखने भैंस को नाथना भी जानते हैं. आडवाणी की रथयात्रा को रोक कर उन्होंने इसका उदाहरण भी पेश कर दिया.

1990 से 1996 तक लालू ने कई ऐसे फैसले लिये, जिसने उनकी ख्याति पूरे देश में फैला दी और बिहार के वे निर्विवाद नेता बनते चले गये. उनके पीछे उनकी अपनी यादव जाति और भागलपुर दंगे के बाद कांग्रेस से विमुख हुई मुसलिम बिरादरी का समर्थन तो था ही, पिछड़ों की पूरी जमात उन्हें अपना नेता मानने लगी थी. उस जमाने में उनके नेतृत्व का सबसे बड़ा लाभ यह माना जाता था कि सदियों से दबाई गयी दलित और पिछड़ी जातियां उस जमाने में मुखर हुई. वे मतदान केंद्रों तक पहुंचने लगी, उन्होंने जातीय पंचायत कर फैसला किया कि किसी सवर्ण के आगे झुकेंगे नहीं, उनकी बेगारी नहीं खटेंगे, उनके घर का जूठा बरतन नहीं धोएंगे. पहले चुनाव में उनका नारा ही यही था कि और कुछ दिया न दिया, मगर गूंगो के मुंह में जुबान तो दिया. मगर 1996 में चारा घोटाला के सामने आते ही उनकी छवि का दरकना शुरू हो गया.

पहले गिरफ्तारी से बचने की कवायद, फिर पत्नी राबड़ी देवी को अपनी जगह पर मुख्यमंत्री बना देना और परदे के पीछे से राज चलाना, उन्हें उस वक्त की नैतिक समाजवादी राजनीति में अलोकप्रिय बना दिया. फिर सामाजिक न्याय के मसले पीछे छूटते चले गये. परिवार और कुरसी को बचाना उनकी प्राथमिकता बन गयी. नैतिकता छूटी तो जार्ज, नीतीश, शरद जैसे साथी भी छूटते चले गये. अपनी अलग पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का गठन इस ठसक के साथ किया कि लालू के नाम पर ही बिहार में वोट पड़ते हैं, कोई चला जाये उन्हें फर्क नहीं पड़ता. फिर उन्होंने कुरसी बचाने के लिए माय समीकरण बनाया. तसलीमुद्दीन, शहाबुद्दीन, पप्पू यादव जैसे से समझौते किये, पार्टी के वैचारिक और सिद्धांतवादी नेता पीछे चले गये. सिद्धांतों को निर्लज्जता से तिलांजलि दी. इस बीच मुकदमे चलते रहे. उन्होंने अपनी जेल यात्रा को ग्लैमराइज किया. कहने लगे कि भगवान कृष्ण भी तो जेल जाते थे. अपनी गड़बड़ियों को ढकने के लिए तरह-तरह के मेटाफर का इस्तेमाल करना शुरू किया. इस बीच राज्य में अपराध बढ़ने लगे, व्यापारी राज्य छोड़कर जाने लगे. मगर लालू निश्चिंत थे. वे मद में चूर थे कि वे चाहे जो करें, उनके वोटर उन्हें छोड़ नहीं सकते. इन सबने उनके राज को जंगलराज का टैग दिया. यह सामाजिक न्याय का टैग भी हो सकता था, अगर यह चारा घोटाला नहीं होता.

फिर लालू सत्ता के लिए उसी कांग्रेस के साथ हो गये, जिस गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर वे सत्ता में आये थे. अब सामाजिक न्याय उनके एजेंडे से बाहर था. उन्होंने ब्राह्मणवाद की वही बुराइयां अपना लीं जिनका वे विरोध करते थे. घर में कर्मकांड वाला पूजापाठ कराना, तांत्रिकों के फेर में पड़ना, घरेलू नौकरों से किसी सामंत की तरह पेश आना.

अब वे मुख्यधारा के राजनेता बनना चाहते थे. विकास पुरुष का तमगा हासिल करना चाहते थे. यूपीए सरकार में रेल मंत्री रहते हुए उन्होंने भरपूर कोशिशें की, मगर उस दौर का शासन भी पाक-साफ नहीं रहा. उस दौर के घोटाले के आरोप आज सिर्फ उन्हें नहीं उनके पूरे परिवार को सीबीआई के दरवाजे पर भेज रहे हैं. तेजस्वी को कुरसी गंवानी पड़ी है. 2013 में वे चारा घोटाले के एक मामले में पहले ही सजावार घोषित हो चुके हैं. इस मामले के बाद भी चार और मुकदमे हैं जिनका फैसला आना है. उनमें कितना वक्त लगेगा कहना मुश्किल है. ऐसे में न सिर्फ राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बल्कि खुद लालू के लिए भी सोचना मुश्किल है कि अगर चारा घोटाला नहीं होता तो लालू का राजनीतिक जीवन कैसा होता? जिस एक घोटाले ने उनका आधे से अधिक लंबा राजनीतिक कैरियर दागदार कर दिया.

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