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समाज से गायब हो गयी डोली की परंपरा

गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं कहार एकंगरसराय : पुराने जमाने से चली आ रही डोली व पालकी अब धीरे-धीरे ओझल होने लगी है और कहार कहीं गुम से हो गये हैं. बिहार के मध्यवर्ती इलाकों में कहारों की काफी पहचान थी. इज्जत और सम्मान भी इससे जुड़ी हुई थी. रईशजादा समझने वाले लोग कहीं […]

गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं कहार

एकंगरसराय : पुराने जमाने से चली आ रही डोली व पालकी अब धीरे-धीरे ओझल होने लगी है और कहार कहीं गुम से हो गये हैं. बिहार के मध्यवर्ती इलाकों में कहारों की काफी पहचान थी. इज्जत और सम्मान भी इससे जुड़ी हुई थी. रईशजादा समझने वाले लोग कहीं आने-जाने के लिए पालकी रखा करते थे और कहारों को भरपेट भोजन एवं तयशुदा माहवारी रकम भी दी जाती थी. परंतु आज के दिनों में पालकी के साथ-साथ कहार भी गुमनाम जिंदगी जीने को विश है.
पहले लचकती डोली और उसे ढोते कहार शादी-विवाह के मौसम में हर जगह दिखाई देते थे. किंतु आज अत्याधुनिक युग के इस चकाचौंध में अब ऐसे दृश्य कम ही देखने को मिलते हैं. वक्त के थपेड़ों के साथ यह प्रथा बह कर धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. आजकल डोली या पालकी के दर्शन दुर्लभ हो गये हैं, परंतु उनके अवशेष यादों के अजायबघर में अवश्यक मिल जायेंगे. डोली ढोने वाले की नयी पीढ़ी ने तो पेशा ही बदल दिया है. गांवों को छोड़ कर रोजी-रोटी तलाशती उनकी युवा पीढ़ी इस पेशे को कब की भूल चुकी है. गांव में बच गयी है तो सिर्फ वीरानगी. कुछ गांव में भी अभी डोली की प्रथा काम है. मगर अंतिम सांस गिरते हुए विकास की तेज गति ने लचकती डोली की लचकती चाल को मात दे डाली है.
डोली सम्मान सूचक थी. लेकिन मारूती, मार्शल, सुमो, सफारी, बेलोरो, विक्टा, ऑल्टो अब प्रतिष्ठा द्योतक हो गयी है. समय के साथ-साथ लोग भी अब इस प्रथा को भूलने लगे हैं. युवा वर्ग के कहारों का मानना है कि इंसानों के कंधों पर इंसानों को ढोया जाना गुलामी एवं सामंती प्रवृत्ति का परिचायक है. सामाजिक बदलाव की इस पृष्ठ भूमि में पालकी की प्रथा समाप्ति पर है, फिर भी इसका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व अब भी है. वैसे पहले तो गांव में एक सार्वजनिक डोली भी हुआ करती थी, फिरू भी जिन लोगों के पास डोली होती थी वे गांव के एक प्रतिष्ठित लोग माने जाते थे. गांव की बहु बेटियां बड़े शान से जरीदार बनारसी कपड़ों से ढंकी डोली में चढ़ कर विदा होती थी.

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