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60 रुपये भाड़ा मिला, 38 रुपये ऐप कंपनी और पेट्रोल में चले गए, बस इत्ती सी है गिग वर्कर्स की कमाई

उत्तर बिहार में गिग वर्कर्स सामाजिक सुरक्षा और नियमों की कमी से परेशान, लंबे समय तक काम करने को विवश, सरकार से वेलफेयर फंड और सरकारी निगरानी तंत्र विकसित करने की आवश्यकता बता रहे

अनुज शर्मा, मुजफ्फरपुर

“हमारी मेहनत का 20 प्रतिशत पैसा बाइक राइड सेवा प्रदान करने वाली ऐप कंपनी काट लेती है. सवारी ढोने में पेट्रोल भी जलता है. आप ऐसे समझिए कि लास्ट राइड का भाड़ा 60 रुपये मिला है. इसमें मुझे केवल 22 रुपये मिलेगा. 38 रुपये ऐप कंपनी के कमीशन और पेट्रोल पर खर्च हो गया. सुविधाओं के नाम पर बस बाइक और मेरा कहने भर का इंश्योरेंस है. कुछ नहीं नहीं मिलता. न परिवार का इंश्योरेंस है, न ही मेडिकल. मैं जिस कंपनी के लिए बाइक राइड कर रहा हूं , उसे ईएसआई, पीएफ जैसी सुविधाएं भी हमें देनी चाहिए. यदि मुझे कुछ हो गया तो मेरे परिवार का क्या होगा ? सरकार और कंपनी को यह तो सोचना चाहिए.”

यह कहना है मुजफ्फरपुर में दो साल से अलग-अलग कंपनियों के लिए बाइक राइड करने वाले युवा गिग वर्कर मोहम्मद फिरोज का. इतिहास से एमए कर चुके फिरोज रोजाना आठ घंटे बाइक राइडर का काम करते हैं. वह महीने में मुश्किल से 10 से 15 हजार के बीच कमा पाते हैं.  माता- पिता सहित पूरे परिवार की जिम्मेदारी उन पर है. वह चाहते हैं कि बिहार सरकार राजस्थान की तरह गिग वर्कर्स की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का पहल करे. 

मुजफ्फरपुर के गायघाट प्रखंड के कमरथू गांव के सच्चिदानंद कुमार भी गिग वर्कर्स हैं. वह अपने गिग वर्कर्स कुछ साथियों का उदाहरण देते हैं, जिनको कानून के अभाव में दर्दनाक स्थिति का सामना करना पड़ा. वह चाहते हैं कि सरकार उनके जैसे गिग मजदूरों के लिए वेलफेयर फंड बनाए.

गिग वर्कर्स की श्रेणी में वह लोग आते हैं जो स्वरोज़गार और अंशकालिक रोजगार से जो अपना गुजारा कर रहे हैं. हालांकि अभी तक ओला, रेपिडो, जोमैटो,  स्विगी से लेकर आमेजन-फ्लिपकार्ट जैसी ऐप बेस्ड कंपनियों के लिए डिलीवरी का काम करते हैं. अथवा,  ऐप बेस्ड अन्य काम से जुड़े लोगों को ही गिग वर्कर समझा जाता रहा है. उत्तर बिहार के तिरहुत और दरभंगा प्रमंडल से पलायन कर दूसरे देशों में काम की तलाश में गए मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इनमें सबसे बड़ी संख्या गिग मजदूरों है.

बिहार सरकार के पासपोर्ट संबंधी ताजा आंकड़े बताते हैं कि रोजगार के लिए विदेश के लिए पलायन 2021 के मुकाबले 2023 में करीब 80 फीसदी बढ़ा है. तिरहुत – दरभंगा प्रमंडल की बात करें तो  2020- 21 में 48711 लोगों ने पासपोर्ट बनवाया.  2022- 23 में यह आंकड़ा बढ़कर 131543 पर पहुंच गया.

तिरहुत प्रमंडल में इतने लोगों ने बनवाया पासपोर्ट

  • 2020-21 @ 31972
  • 2021-22  @ 63066
  • 2022-23 @ 86530

दरभंगा प्रमंडल में पासपोर्ट बनवाने वालों की संख्या

  • 2020-21 @ 16739
  • 2021-22  @ 33974
  • 2022-23 @ 45013

टैक्सी का नेशनल परमिट फिर भी मोटर यान टैक्स की वसूली :  प्रवीण कुमार झा

Photo No1 Gig Workar Praveen Kumar Jha मोटर वाहन टैक्स की पर्ची दिखाते हुए Edited

समस्तीपुर जिला के चंदौली डोरापार निवासी प्रवीन कुमार झा महाराष्ट्र में स्वरोजगार करते हैं. अपनी खुद की टैक्सी चलाते हैं. वह रविवार को मुजफ्फरपुर से गुजर रहे थे. महाराष्ट्र से बिहार आते समय मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के बॉर्डर पर वसूले गए मोटर यान टैक्स की वह पर्चियां दिखाते हैं.  उनकी नाराजगी इस बात पर है कि परिवार के साथ घर आने-जाने पर हर बार प्रत्येक राज्य को 24 घंटे के लिए 200 रुपये का मोटरयान टैक्स देना पड़ता है. 24 घंटे में वह स्टेट पार नहीं किया जो टैक्स डबल हो जाता है. प्रवीण झा का कहना था कि एक बार नेशनल परमिट लेने के लिए टैक्स भर दिया तो बार- बार अलग से लिया जाना वाला यह टैक्स बंद होना चाहिए. ऐसा होता है तो गिग वर्कर्स को कुछ राहत मिलेगी.


ग्लोबलाइजेशन से ट्रेड यूनियन कमजोर पड़े, मुजफ्फरपुर में 10 हजार गिग वर्कर : एक्टिविस्ट शाहिद कमाल

Sahid Kamal Activist

एक्टिविस्ट शाहिद कमाल बताते हैं कि पंजाब, तमिलनाडु, दिल्ली, मुंबई, हरियाणा जैसे राज्यों में सर्विस सेक्टर, इंडस्ट्री और कृषि में काम करने वाले मजदूर कोरोना महामारी में लाखों की संख्या में अपने घर आए तो वापस नहीं लौटे. मोटे तौर पर देखें तो मुजफ्फरपुर में ही दस हजार से अधिक ऐसे लोग होंगे गिग वर्कर्स के रूप में अपनी जीविका चला रहे हैं. मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा, चंपारण, मधुबनी, सीतामढ़ी आदि जिलों में बाहर से लौटने वाले लोगों ने छोटे-मोटे काम धंधे शुरू किए हैं. बिहार सरकार को चाहिए कि वह प्रोत्साहित करे. कमाल इस बात से चिंतित नजर आते हैं कि कहीं की सरकार गिग वर्कर्स ही नहीं किसी भी श्रेणी के मजदूर के साथ खड़ी नजर नहीं आती हैं.

फर्नांडीस – बसावन की जमीन से भी खत्म हो चलीं ट्रेड यूनियन

Surendr Kishor

सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आंदोलन को धार देने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस मुजफ्फरपुर से चार बार लोकसभा पहुंचे. पहली बार 1977 में चुनाव जीते. आखिरी बार 2004 में यहां जीत हासिल की. जमालपुर, वैशाली की धरती ने बसावन सिंह जैसी हस्ती दी. श्रमिक- मजदूरों की आवाज पूरी दुनियां तक पहुंचाने वाले इन नेताओं का उत्तराधिकारी तिरहुत को अभी तक नहीं मिला है. यहां आखिर ट्रेड यूनियनों की चमक क्यों फीकी पड़ गई?   मजदूरों का विश्वास ट्रेड यूनियन नेताओं क्य़ों उठा? औद्योगिक श्रमिकों की काफी बड़ी संख्या होने के बावजूद उत्तर बिहार में ट्रेड यूनियनों की प्रभावी स्थिति नहीं का कारण जानने के लिए हमने  जॉर्ज फर्नांडीस के साथ काम कर चुके पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर से बात की. सुरेंद्र किशोर ने बताया कि उत्तर बिहार में  ट्रेड यूनियन, श्रमिक संगठन और उनके नेताओं के कमजोर पड़ने के लिए निजीकरण को जिम्मेदार मानते हैं. वह कहते हैं कि जो चीजें सरकार के पास थीं वह भी निजी हाथों में चली गईं. पक्की नौकरी नहीं होने के कारण मजदूर यूनियन लड़ नहीं सकती. नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है. मजदूर संगठन कमजोर होने से मजदूर नेता का कमजोर होना स्वाभाविक है

तीन साल में 60 प्रवासी मजदूरों की मौत  

रोजगार के लिए बिहार से बाहर जाने वाले 60 मजदूर की मौत हो गई. यह आंकड़ा 2021-2023 तक का है. इनके आश्रितों को  बिहार सरकार द्वारा आर्थिक मदद भी उपलब्ध कराई गई है. मरने वाले प्रवासी मजदूरों में शिवहर के चार , वैशाली छह, पूर्वी चंपारण में 15 श्रमिक, मुजफ्फरपुर पांच, सीतामढ़ी आठ, दरभंगा 11, मधुबनी सात तथा समस्तीपुर के चार श्रमिक हैं. दिल्ली की एक गैर सरकारी संगठन ने पिछले साल एक रिपोर्ट जारी की थी. उस रिपोर्ट में बताया गया था कि पलायन करने वालों में 36 फीसदी एससी- एसटी,  58 फीसदी ओबीसी समुदाय के लोग होते हैं. 58 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं. 65 फीसदी पर खेती के लिए जमीन नहीं हैं. बिहार सरकार के अनुसार 2008 से 2012 के बीच पलायन में 35-40 फीसदी तक कमी आयी है.

घरेलू नौकर को हर महीने देने होंगे 9268 रुपये

बिहार सरकार ने 2023 में न्यूनतम मजदूरी की दर काम के हिसाब से अलग- अलग निर्धारित की है.  घरों में बर्तन – कपड़े धोने , साफ- सफाई, बच्चों की देखभाल , उनको स्कूल लाने- ले जाने वालों को श्रमिक श्रेणी 4 में  रखा गया है. है. यदि कोई व्यक्ति किसी के घर में रोजाना एक घंटे तक या कपड़े या बर्तन धुलवाना  अथवा 1000 वर्ग फीट घर का पोंछा लगवाते हैं तो उसे इस काम के लिए 1155 रुपये मासिक देने होंगे. यदि कोई इन कामों के लिए रोजाना आठ घंटे समय देता है तो उसे 9268 रुपये महीना मजदूरी के रूप में देने होंगे. बच्चों को स्कूल लाने – ले जाने के लिए आठ घंटे रोजाना सेवा देने वालों को भी  9268 रुपये मासिक मानदेय देना होगा.

ट्रैक्टर चालक- पंप आपरेटर की मजदूरी 13342 रुपये

श्रमिक श्रेणी 6 में आने वाले मजदूरों को खेतों में कटाई – तुड़ाई को छोड़कर अन्य कार्य करने के लिए रोजाना 369 रुपये मजदूरी तय है. कटाई तुड़ाई करने वालों को हर महीने 10383 तथा  रोजाना ट्रैक्टर चलाने वाले – तथा  पंप आपरेटर को 13342 रुपये प्रतिमाह भुगतान करना होगा.

महिलाओं की पहली पसंद प्राथमिक क्षेत्र

पुरुष और महिला श्रमिकों को प्राथमिक क्षेत्र  सबसे अधिक रोजगार दे रहा है. इस क्षेत्र में 41.1 फीसदह पुरुष तथा 76.5 फीसदी महिला श्रमिक जुड़े हुए हैं. उत्तर बिहार में फसल उत्पादन में स्वरोजगार और दिहाड़ी मजदूरी ही रोजगार का मुख्य साधन है.

श्रमिकों की  न्यूनतम मजदूरी दर

  • अकुशल (प्रतिदिन) @- 388
  • अर्धकुशल (प्रतिदिन)@ 403
  • कुशल (प्रतिदिन)@491
  • अति कुशल (प्रतिदिन)@600
  • सुपरवाइजर – लिपिक (प्रतिमाह)@1107
  • (स्रोत : बिहार सरकार, श्रमिक श्रेणी  1-5 )

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