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अंधेरी गलियों में शिक्षा की लौ जला रहे सुमित

खगड़िया : बड़े शहरों की नौकरी छोड़ कर खगड़िया के दुर्गम इलाकों में शिक्षा की लौ जलाने की ललक ने सुमित को आज आम से खास बना दिया है. आज वह बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर के सपनों को साकार करने में जी-जान से लगे हुए हैं. उनकी मेहनत रंग लायी है. कल तक खेतों […]

खगड़िया : बड़े शहरों की नौकरी छोड़ कर खगड़िया के दुर्गम इलाकों में शिक्षा की लौ जलाने की ललक ने सुमित को आज आम से खास बना दिया है. आज वह बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर के सपनों को साकार करने में जी-जान से लगे हुए हैं. उनकी मेहनत रंग लायी है. कल तक खेतों में माता-पिता का हाथ बंटाने वाले दलित बच्चे अब स्कूल में ककहरा सीख रहे हैं.

खगड़िया के कुमरचक्की निवासी सुमित की लगन को देखते हुए उन्हें इस वर्ष का डॉ अंबेडकर राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान से नवाजा गया है. दलितों के बीच शिक्षा की रोशनी जगा कर उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने की कोशिश की आज देशभर में चर्चा हो रही है. प्राथमिक विद्यालय अंबाटोला के प्रधानाध्यापक अशोक पासवान कहते हैं कि सुमित द्वारा दलित टोलों में फैलाये गये जागरूकता के कारण आज विद्यालय में बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है.

थोड़ा प्यार, थोड़ा दुलार की जरूरत
कहते हैं अंधेरे को कोसने से अच्छा है एक दीपक जला देना. दलितों के गांव में जाकर अभिभावकों को समझाना काफी कठिन काम था. पर, सुमित ने हार नहीं मानी. इस दौरान लोगों ने उनका मजाक भी बनाया, लेकिन वह अपने मिशन पर अडिग रहे. गांवों में घूम-घूम कर अभिभावकों को समझाने के दौरान कई बातें सामने आयीं. सुमित बताते हैं कि दलित परिवारों में अशिक्षा सारी समस्याओं की जड़ है. इस कलंक को शिक्षा की रोशनी फैला कर ही मिटाया जा सकता है.
अभिभावकों को शिक्षा की अहमियत बताते हुए बच्चों के भविष्य से सपने बुने गये. वे बताते हैं अब तक असहाय व मानसिक रूप से पिछड़े इन परिवारों को ‘कुछ दुलार, थोड़ी राहत, थोड़ी चाहत और थोड़े प्यार की जरूरत है.’ तब जाकर हम लोग बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों को साकार कर पायेंगे. इधर, सुमित की कोशिशें रंग लायीं.
कल तक खेतों में हाथ बंटाने वाले मासूम बच्चों के हाथ अब स्लेट और पेंसिल है. इस गांव के अधिकांश दलित बच्चे अब खेतों में काम पर नहीं जाते, बल्कि स्कूल में ककहरा सीख रहे हैं. कुछ महीने पहले तक इस स्कूल में 60 बच्चाें का नामांकन था. अब ढाई गुना ज्यादा बच्चे स्कूल आ रहे हैं. इसमें से अधिकांश दलित वर्ग से आते हैं.

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