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रंग-कीचड़ से मनती थी होली, बुजुर्गों के छूते थे पांव

बचपन में रंग व कीचड़ से होली खेला करते थे. एक दूसरे के बीच प्रेम-व्यवहार पहले ज्यादा था. पहले हंसी-खुशी मिलजुलकर दिन भर होली मनाते थे और बड़े बुजुर्गों का पांव छूकर आशीर्वाद लेते थे. अब होली के दिन घर पर रहना पसंद है. जो भी आया अबीर-गुलाल लगाया और गले लगते हैं. जेएलएनएमसीएच : […]

बचपन में रंग व कीचड़ से होली खेला करते थे. एक दूसरे के बीच प्रेम-व्यवहार पहले ज्यादा था. पहले हंसी-खुशी मिलजुलकर दिन भर होली मनाते थे और बड़े बुजुर्गों का पांव छूकर आशीर्वाद लेते थे. अब होली के दिन घर पर रहना पसंद है. जो भी आया अबीर-गुलाल लगाया और गले लगते हैं.

जेएलएनएमसीएच : उस समय की होली दो दिन जोर-शोर से होती थी. कीचड़ से लेकर रंगों की होली बेफिक्री और बेलौस अंदाज में खेलते थे. इसमें किसी भी प्रकार का भय नहीं बल्कि प्रेम, साैहार्द का वातावरण रहता था. आज तो अपने के बीच में ही होली खेलने से लेकर रंग-अबीर लगाना अच्छा लगता है. आज की तारीख में पहले वाली होली की न तो मस्ती रही और न ही रंगोत्सव में डूबा माहौल. अब तो महज औपचारिकताओं की होली रह गयी है.
प्रो(डॉ) अशोक कुमार भगत, मनोचिकित्सक, जेएलएनएमसीएच भागलपुर
बचपन से लेकर दरभंगा मेडिकल कालेज में पढ़ाई तक, जब तक रही बेफिक्री के संग होली खेली. छोटा-बड़ा, अपना-पराया जो भी मिला, उसी को रंग में डूबो दिया. सखियों संग होली खेलने निकली और कब दिन बीत जाता था, आनंद-मस्ती के सुरूर में पता नहीं चलता था. अब तो रंग लगने-लगाने से ही डर लगता है. खासकर सिंथेटिक रंगों से हाेली खेलने में तो बहुत ही डर लगता है. दिन भर अबीर-गुलाल से होली और शाम को अपनों संग गले मिलकर होली का मुबारकबाद देना अच्छा लगता है.
डॉ शोभा रेवन, उपाधीक्षक जेएनएनएमसीएच
वो सुबह जब सहेलियों संग होली खेलने निकलती थी, तो हम उम्र मिला तो चेहरे को रंग से रंग दी और बड़ा-बुजुर्ग मिला तो पैर छूकर आशीर्वाद ले लिया. होली में हर तरफ मस्ती और आनंद का माहौल और प्रेम-भाइचारगी के रंग में लोग डूबे रहते थे. हम भी उसी मस्ती में खुद को ढालकर होली के रंगोत्सव में डूब जाती थी. अब सिंथेटिक रंग से डर लगता है. चूंकि होली आनंद व प्रेम का पर्व है, इसलिए अपनों संग अबीर-गुलाल से होली मनाती हूं और बड़े-बुुजुर्गों का आशीर्वाद लेती हूं.
डॉ शिल्पी रानी, चिकित्सक रेफरल हाॅस्पिटल नाथनगर

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