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शहर में चर्चा-ए-आम थी शाम-ए-महफिल की

शहर में चर्चा-ए-आम थी शाम-ए-महफिल कीसंवाददाता, भागलपुरशहर में चर्चा-ए-आम थी शाम-ए-महफिल की. प्रभात खबर के तत्वावधान में रविवार की शाम छह बजे से टाउनहाॅल में मशहूर शायर मुन्नवर राणा और डॉ राहत इंदौरी की शाम-ए-महफिल सजेगी. आयोजन की चर्चा शनिवार के हर उस शहरी की जुबां पे था जिसकों शेर-ओ-शायरी का जरा सा भी इल्म […]

शहर में चर्चा-ए-आम थी शाम-ए-महफिल कीसंवाददाता, भागलपुरशहर में चर्चा-ए-आम थी शाम-ए-महफिल की. प्रभात खबर के तत्वावधान में रविवार की शाम छह बजे से टाउनहाॅल में मशहूर शायर मुन्नवर राणा और डॉ राहत इंदौरी की शाम-ए-महफिल सजेगी. आयोजन की चर्चा शनिवार के हर उस शहरी की जुबां पे था जिसकों शेर-ओ-शायरी का जरा सा भी इल्म है या यूं कह लें शौक रखता है. शहर के हर सरकारी दफ्तर, स्कूल-काॅलेज, चौक-चौराहे से लेकर चाय की दुकानों पर हर जगह नाम-सम्मान से परे मुनव्वर राणा और डॉ राहत इंदौरी के शहर में आने की चर्चा रही. इस दौरान कोई दोनाें हस्तियों के शेरों को गुनगुना रहा था, तो कोई शहर में संभवत: पहली बार इस तरह की शख्सीयत के आने की बात कह रहा था. ‘मां बहुत गुस्से में होती तो रो देती है’मुनव्वर राणा से पहले शायरी सिर्फ रूबाइयों, रूमानियत, ख्यालों एवं कल्पनाओं की एक मुकम्मल दुनिया रहती थी, लेकिन मुन्नवर राणा ने कहा कि नहीं मां-बेटी और रिश्ते भी शायरी के गुलशन को महका सकते हैं. राणा साहेब मां पर आधारित एक शेर कुछ यूं लिखे हैं, ‘लबों पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती, बस इक मां है जो कभी खफा नहीं होती, इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है.’ बेटी की अहमियत को राणा साहेब ने कुछ यूं इस तरह से अपनी रचनाओं में देते हुए कहते हैं ‘घर में रहते हुए गैरों की तरह होती है, बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं, उड़ के इक रोज बहुत दूर चली जाती हैं, घर की शाखों पर यह चिड़ियों की तरह होती हैं.’ सियासत पर कुछ इस तरह से राणा साहेब तंज कसते दिखते हैं, ‘सियासत नफरतों का जख्म भरने ही नहीं देती, जहां भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है, मैं दुश्मन ही सही आवाज दे मुझको मुहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख हड्डी बैठ जाती है.’ अपने काे सियासत से जोड़े जाने संबंधी आरोप को अपने शेर के जरिये कुछ यूं कहते हैं, ‘सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता, हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता, हम कि शायर हैं सियासत नहीं आती हमको, हमसे मुंह देख के लहजा नहीं बदला जाता.”आंख प्यासी है कोई मंजर दे दे’डॉ राहत इंदौरी साहब की प्रस्तुति सीधे दिल तक पहुंचती है और लोग सोचते रह जाते हैं कि इन्होंने गंभीर मुद्दों का जवाब कितनी आसानी से दे दिया. इक जगह डॉ साहब कहते हैं कि ‘आंख प्यासी है कोई मंजर दे दे, इस जजीरे को भी समंदर दे दे, फिर न कहना कि खुदकुशी है गुनाह, आज फुरसत है फैसला कर दे.’ नफरतों की दुनिया को इंदौरी साहब कुछ यूं कहते हैं ‘दोस्ती जब किसी से की जाये, दुश्मनों की भी राय ली जाये, मौत का जहर है फिजाओं में, अब कहां जाकर सांस ली जाये.’ जिंदगी का फलसफा सुनाते हुए ये कहते है कि ‘हर इक चेहरे को आइना न कहो, ये जिंदगी तो है रहमत, इसे सजा न कहो, ये शहर वो है जहां राक्षस भी है राहते, हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो.’ ये जवानों से अपनी शेर के जरिये कुछ यूं सवाल करते हैं, लोग हर मोड़ पे रूक-रूक के संभलते क्यूं हैं, ‘ख्वाब आ आ के मेरी छत पर टहलते क्यूं हैं, मोड़ आता है जवानी का संभालने के लिए, और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यूं हैं.’ अगर आप मुनव्वर राणा और डॉ राहत इंदौरी के इस तरह के कुछ नये-पुराने नग्मे, शेर या गीतों से रूबरू होना चाहते हैं तो आइये प्रभात खबर के तत्वावधान में टाउनहॉल में रविवार की शाम छह बजे से सजने वाले शाम-ए-महफिल में. यहां आपका तहे दिल से स्वागत है.

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