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जले पर नमक छिड़कनेवाला वक्तव्य नहीं, समाधान पर बात हो

जले पर नमक छिड़कनेवाला वक्तव्य नहीं, समाधान पर बात होभारतीय संविधान के अनुसार, भारत एक कल्याणकारी राज्य है. संसदीय प्रणाली पर आधारित इस राज्य का मुखिया प्रधानमंत्री कहलाता है. प्रधानमंत्री का दायित्व बनता है कि वह राग-द्वेष से मुक्त होकर राज्य के हर नागरिक का हित-पोषण करे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा ‘सबका साथ, सबका […]

जले पर नमक छिड़कनेवाला वक्तव्य नहीं, समाधान पर बात होभारतीय संविधान के अनुसार, भारत एक कल्याणकारी राज्य है. संसदीय प्रणाली पर आधारित इस राज्य का मुखिया प्रधानमंत्री कहलाता है. प्रधानमंत्री का दायित्व बनता है कि वह राग-द्वेष से मुक्त होकर राज्य के हर नागरिक का हित-पोषण करे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा ‘सबका साथ, सबका विकास’ संविधान की इसी भावना को प्रतिध्वनित करता है. परंतु खेद की बात है कि व्यवहार में ऐसा हो नहीं हो पा रहा है.देश के सर्वतोमुखी विकास के लिए आवश्यक है कि विरोध के सामूहिक स्वर बिल्कुल न उठें या कम-से-कम उठें. उठते भी हैं तो उसे सकारात्मक सोच के साथ लिया जाना चाहिए. किसी भी जनतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था की सेहत के लिए यह वांछित भी है. लेकिन, जिस व्यवस्था में बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और कलाकार आत्महत्या के लिए विवश हों अथवा उनकी हत्या हो रही हो, तो समझ लीजिए आपका लोकतंत्र बीमार हो रहा है.एक शेक्सपीयर थे, जिन्होंने अपने साहित्य को देश से ऊपर माना था. कहते हैं कि किसी ने मजाक में उनसे पूछ लिया था कि आपके साहित्य को समंदर में डाल दूं या फिर आपके देश को गुलाम बना डालूं. उन्होंने छूटते ही कहा कि मेरे देश को गुलाम बना डालो, क्योंकि मेरा साहित्य बचा रहेगा, तो देश खुद-ब-खुद आजाद हो जायेगा. साहित्य बचा रहे, इसके लिए जरूरी है कि साहित्यकार बचे रहें.हाल में कुछ बुद्धिजीवियों और लेखकों की हत्याओं से उपजे आक्रोश के फलस्वरूप साहित्य अकादमी पुरस्कार-प्राप्त साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार की वापसी को इसी रूप में देखा जा रहा है. सरकार इसे अपने विरुद्ध राजनीतिक साजिश बता रही है, तो साहित्यकार-मंडली प्रतिकार का तरीका. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. जालियांवाला-नरसंहार के प्रतिकार-स्वरूप 1915 में रवींद्रनाथ टैगोर ने भी सर की उपाधि वापस कर दी थी.ऐसे में मेरा मानना है कि सरकार और सरकार से बाहर बैठे कुछ लोगों को जले पर नमक छिड़कने वाला वक्तव्य न देकर बुद्धिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों व कलाकारों के साथ बैठ कर मंत्रणा करनी चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान कर उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए. संतप्त साहित्यकारों को सम्मान वापस लेने के लिए मनाया जाना चाहिए.दूसरी तरफ बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों व कलाकारों का भी फर्ज बनता है कि वे पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर सरकार का विरोध न करें, क्योंकि सिर्फ विरोध के लिए किये गये विरोध की कोख से विरोध ही जन्म लेगा. शांति, सद्भाव और विकास बिलकुल नहीं.बहादुर मिश्रप्रोफेसर, पीजी हिंदी विभाग, टीएमबीयू

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