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आसुरी प्रवृत्ति के नाश की प्रतीक है मां असुर विनाशिनी

आसुरी प्रवृत्ति के नाश की प्रतीक है मां असुर विनाशिनी 66 वर्षों से होती है आरएस में मां की आराधना रेलकर्मी व आरएसवासियों के सहयोग से 1949 में हुई थी मां के मंदिर की स्थापना फोटो-1-अररिया आरएस का असुर विनाशिनी मंदिर प्रतिनिधि, अररिया आरएस रेलवे परिसर में स्थापित मो असुर विनाशिनी मंदिर अपने गौरवशाली इतिहास […]

आसुरी प्रवृत्ति के नाश की प्रतीक है मां असुर विनाशिनी 66 वर्षों से होती है आरएस में मां की आराधना रेलकर्मी व आरएसवासियों के सहयोग से 1949 में हुई थी मां के मंदिर की स्थापना फोटो-1-अररिया आरएस का असुर विनाशिनी मंदिर प्रतिनिधि, अररिया आरएस रेलवे परिसर में स्थापित मो असुर विनाशिनी मंदिर अपने गौरवशाली इतिहास के कारण श्रद्धा का केंद्र बन चुका है. 66 वर्ष पूर्व स्थापित यह मंदिर रेलवे कर्मी व स्थानीय लोगों के एक जुटता का प्रतिबिंब है. वर्ष में दो बार इस मंदिर में प्रतिमा को स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है. चैती नवरात्र व शारदीय नवरात्र दोनों ही अवसर पर असुर विनाशिनी मंदिर में मां दुर्गा की प्रतिमा को मूर्तिकार कन्हैया प्रसाद बनाते हैं. एक खास बात इस मंदिर की यह भी है कि चैती नवरात्र में स्थापित प्रतिमा की पूजा श्रद्धालु सालों भर करते हैं, जबकि शारदीय नवरात्र के अवसर पर मां दुर्गा की नयी प्रतिमा का निर्माण कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है.छागर का कान काट कबूल किया जाता है चढ़ावा मंदिर कमेटी के कोषाध्यक्ष जोगेंदर गुप्ता ने बताया कि अष्टमी व नवमी को मंदिर में चढ़ावा के रूप में छागर की बली देने की परंपरा तो नहीं है, लेकिन इच्छुक श्रद्धालुओं की धार्मिक भावना को कद्र करते हुए अष्टमी के दिन निशा पूजा के बाद व नवमी को छागर चढ़ाने आने वाले श्रद्धालुओं के छागर का कान काट कर छोड़ दिया जाता है. उन्होंने बताया कि दुर्गा पूजा के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. इसके अलावा हर शुक्रवार को सामाजिक स्तर पर भी महाभोग के आयोजन में भारी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं.1949 में शुरू की गयी थी मां की पूजा मां असुर विनाशिनी की पूजा 1949 में तत्कालीन स्टेशन अधीक्षक टीके घोष ने सामाजिक सहयोग से प्रारंभ की थी. टीके घोष के प्रयास का ही परिणाम है कि आज भी मंदिर कमेटी में स्टेशन अधीक्षक स्वत: पदेन अध्यक्ष होते हैं. मंदिर कमेटी का पुनर्गठन दो साल में होता रहता है. मंदिर का हुआ नव निर्माणमां असुर विनाशिनी मंदिर में मां की पूजा तो 1949 से ही टीन के छत के बने मंदिर में की जाती थी, लेकिन 1993 में वास्तु आधारित मंदिर का निर्माण अपने पुत्र पंकज की स्मृति में राज कुमार अग्रवाल उर्फ राजू अग्रवाल ने कराया. हालांकि पुत्र के अपहरण व हत्या से मर्माहत राजू अग्रवाल आरएस से पलायन कर अन्यत्र चले गये, लेकिन उनके द्वारा निर्मित इस मंदिर में आज भी इनकी यादें संजो कर रखी गयी है. 20 अक्तूबर 1993 को तत्कालीन जिलाधिकारी रविकांत के द्वारा मंदिर का उद्घाटन किया गया था. मुसलिम महिलाएं भी करवाती हैं पूजावैसे तो मां की पूजा के लिए रायगंज से पंडित शिवशंकर चक्रवर्ती हर वर्ष यहां आते हैं, लेकिन प्रत्येक दिन पूजा अर्चना में शामिल रहने वाले संजीव कुमार राही ने बताया कि मंदिर में मां की प्रतिमा की स्थापना षष्ठी को होती है, लेकिन एक खास बात यह भी है कि मां असुर विनाशिनी के दरबार में मुसलिम महिलाएं भी माथा टेकने आती हैं. वे मंदिर के पुजारी को प्रसाद व अगरबत्ती देकर पूजा भी करवाती हैं.नवमी को लगता है महाभोग मंदिर कमेटी के सदस्य राजू अग्रवाल ने बताया कि मां असुर विनाशिनी अपने दरबार में आने वाले सभी भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती हैं, तो श्रद्धालु भी उनके लिए विभिन्न प्रकार के आयोजन करते हैं. नवमी के दिन मां को महाभोग लगाया जाता है. महाभोग पांच वर्षों से लट्टू केडिया के द्वारा लगाया जाता है. लट्टू केडिया ने बताया कि मां की असीम अनुकंपा से उनके सारे मनोरथ सिद्ध होते आये हैं. मां का आशीर्वाद फलदायक है. इनके दरबार में आये भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है. वहीं दीपक कुमार ने बताया कि वे मां की सेवा में लगातार पांच वर्षों से लगे हुए है. मां ने उनकी पांच मनोरथ में एक को पूरा किया है. मां पर श्रद्धा है, वे अवश्य ही उनका व आये भक्तों का भला करेंगी. मां करती है आसुरी प्रवृत्ति का नाश मां की प्रतिमा सजाने की जिम्मेदारी स्थानीय कलाकरों की होती है, लेकिन सजावट का सामान कोलकाता से मंगाया जाता है. मंदिर कमेटी के उप सचिव अशोक पांडे ने बताया कि सजावट व पूजा पर खर्च का ब्योरा साल में एक बार तय होता है. इस बार का बजट ढाई लाख रुपये का है. इस खर्च में तीन पूजा को संपन्न कराया जाता है. मंदिर कमेटी के अध्यक्ष स्टेशन अधीक्षक एके शर्मा, सचिव बजरंग अग्रवाल, उप सचिव मनोज भगत, कोषाध्यक्ष जोगेंदर गुप्ता ने बताया कि मंदिर की स्थापना आसुरी प्रवृत्ति का नाश के लिए किया गया था, इसलिए मंदिर का नाम असुर विनाशिनी रखा गया.

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