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बिहार में बैंकों का ऋण-जमा अनुपात नहीं बढ़नेवाला

-दर्शक- सत्ता में आने के बाद से लगातार मुख्यमंत्री लालू प्रसाद बैंकों को चेताते रहे हैं कि बिहार में ऋण-जमा अनुपात में सुधार करें, अन्यथा उनके खिलाफ कार्रवाई होगी. राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति की बैठक में पुन: मुख्यमंत्री ने यह सवाल उठाया है. उन्होंने एक उल्लेखनीय तथ्य बताया कि रिजर्व बैंक द्वारा गठित समिति के […]

-दर्शक-

सत्ता में आने के बाद से लगातार मुख्यमंत्री लालू प्रसाद बैंकों को चेताते रहे हैं कि बिहार में ऋण-जमा अनुपात में सुधार करें, अन्यथा उनके खिलाफ कार्रवाई होगी. राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति की बैठक में पुन: मुख्यमंत्री ने यह सवाल उठाया है. उन्होंने एक उल्लेखनीय तथ्य बताया कि रिजर्व बैंक द्वारा गठित समिति के प्रतिवेदन में 1997 तक ऋण-जमा अनुपाद 50 फीसदी तक पहुंचाने का लक्ष्य था, पर वह गिर कर 30 फीसदी से नीचे चला गया है. सांस्थिक वित्त मंत्री मंगनीलाल मंडल तो इस ऋण-जमा अनुपात को ठीक करने का अभियान ही चला रहे हैं.

यह प्रश्न अत्यंत गंभीर और प्रासंगिक है. सामान्य शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ है कि बिहार के विभिन्न बैंकों में यहां के जो लोग पैसे जमा करते हैं, उस पूंजी का इस्तेमाल दूसरे राज्यों के विकास में होता है. पर यह संवेदनशील मामला इतना आसान नहीं है. वह आत्मंथन होना चाहिए कि लालू प्रसाद जैसे सशक्त मुख्यमंत्री और मंगनीलाल मंडल जैसे काबिल मंत्री के सतत प्रयास के बावजूद बिहार में ऋण-जमा अनुपात बढ़ने की जगह घट क्यों रहा है? दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है कि केंद्र में जो सरकार है, उसका रिश्ता बिहार की सरकार से है. वस्तुत: केंद्र की सरकार को जनता दल ही चला रहा है.

बिहार से कई महत्वपूर्ण मंत्री भी दिल्ली में हैं. बिहार के मुख्मयंत्री की वाजिब मांग को अनदेखा करने की कोशिश वित्त मंत्री भी नहीं कर सकते. फिर क्या वजह है कि बिहार में न निवेश बढ़ रहा है और न ऋण-जमा अनुपात? सच्चाई तो यह है कि इससे जुड़े अन्य महत्वपूर्ण कारकों को देखने के लिए न केंद्र सरकार तैयार है और न राज्य सरकार. इन कारणों को जब तक जान-बूझ कर अनदेखा किया जायेगा, तब तक सारे गंभीर प्रयास के बावजूद बिहार में न ऋण-जमा अनुपात सुधरेगा और न निवेश बढ़ेगा. क्या किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के गंभीर प्रयास के बावजूद बिहार के औद्योगिकीकरण का रथ कहीं अटक गया है? किसी ने बैंक में काम करनेवालों से बातचीत कर उनकी समस्या समझने की कोशिश की है? महज शासन का भय और सत्ता के दबंग स्वर से बिहार का विकास होना रहता, तो बिहार आज दुनिया का सबसे विकसित सूबा होता.

एक बार जगन्नाथ मिश्र ने भी मुख्यमंत्री की हैसियत से बड़े जोर-शोर से यह सवाल उठाया था, पर बिहार में निवेश नहीं बढ़ा. किसी बैंकर से बात कीजिये, यह सामान्य तथ्य समझ में आ जायेगा कि बिहार का विकास कहां अवरुद्ध है? बैकों में काम करनेवाले अपने को नितांत असुरक्षित समझते हैं. दो वजहों से, पहला बाहरी कारण है, दूसरा आंतरिक. बाहरी कारण बिहार की मौजूदा कानून-व्यवस्था है. बैकों में जिस बड़े पैमाने पर डकैतियां बढ़ी हैं, उनसे बैंक में कामकाज करनेवालों का अपहरण हो चुका है, उन्हें पैसा या फिरौती की रकम देकर मुक्त होना पड़ा है. बैंकर शिकायत करते हैं कि ऐसी स्थितियों में पुलिस मदद नहीं करती. प्रशासन तटस्थ रहता है और मंत्री या सरकार के नुमाइंदे सिर्फ आश्वासनों की झोली खोल देते हैं. हर जगह अपराधियों-छुटभैये राजनीतिक नेताओं की बेरोजगार जमात खड़ी हो गयी है. इनका काम है, बैंकवालों के पास जाकर उन्हें ऋण देने के लिए धमकाना. ऋण देने की कुछ शर्तें हैं. नियम हैं. गारंटी और प्रस्ताव की जांच-परख और मूल्यांकन का प्रावधान है. स्थानीय स्तर पर अपराधियों-नेताओं का यह गिरोह बैंकरों को धमकाता है कि नियम-कानूनों से आंख मूंद कर तत्काल ऋण मंजूर कर दीजिये. स्पष्ट है कि ऐसे दादानुमा बिचौलिये कमीशन खाते हैं.

स्पष्ट है कि इस उद्देश्य से वसूला गया पैसा, बैंक को लौटाने के लिए नहीं होता. दूसरी दिक्कत यह है कि ऋण मिलते ही राज्य सरकार के कई ‘खाऊ विभाग’ ऋण लेनेवालों के पास आ धमकेंगे. रंगदारी देनी पड़ेगी. फिर सरकार के विभिन्न खाऊ विभागों को खुश करना पड़ेगा. जो कानून- नियम अन्य राज्यों में अप्रासंगिक हो गये हैं. उनकी आड़ में राज्य सरकार के कई विभाग ऋण लेकर नया काम करनेवालों का दोहन करेंगे. बीच में पुलिस भी आ जाती है. इन सबसे उबरने पर बिजली संकट मुंह बाये खड़ा है. यानी जिस उद्योग-रोजगार के लिए आप बिहार में ऋण लेते हैं, वह अंतत: शुरू नहीं हो पाता और ऋण के पैसे का अधिकांश भाग चौथ-रंगदारी और नजराना में बंट जाता है.

क्या इस घोर सामंती-आपराधिक माहौल में कोई बड़ा व्यवसाय-उद्योग खड़ा हो सकता है? दूसरी ओर व्यवसाय करनेवालों की यहां क्या स्थिति है? बेगूसराय में हाल में एक मामूली व्यवसायी (ट्रेडर) के बेटे की हत्या हो गयी? अपराधी फिरौती चाहते थे. बहुत पहले से उक्त व्यवसायी को धमका रहे थे. यह सब पुलिस की जानकारी में था. फिर भी उक्त व्यवसायी के निर्दोष-मासूम बेटे की हत्या हो गयी. ऐसी वारदातों की सूची बने, तो पता लगेगा कि मामूली ट्रेडरों-दुकानदारों की बिहार में क्या स्थिति है? कितने ट्रेडरों-व्यवसायियों की हत्याएं हो चुकी हैं? अपहरण हो चुका है? जो काम कर रहे हैं, उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ती है? बिहार में बड़े उद्योगपति कितने हैं? बमुश्किल अंगुलियों पर गिने जाने लायक.

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