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बिहार-झारखंड : राजनीतिक गतिरोध समझने के सूत्र!

– हरिवंश – नयी राजनीति चाहिए : भारत की मौजूदा राजनीति को समझने के लिए, राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांतों को छोड़ना होगा. समाज के अंदर-बाहर जो कुछ घट रहा है, उसका प्रतिबिंब जिस राजनीति में होगा, उसे व्यापक लोक समर्थन मिलेगा. यह सूत्र, बिहार-झारखंड की वर्तमान राजनीति समझने की कुंजी है. 1991 के बाद लालू […]

– हरिवंश –

नयी राजनीति चाहिए : भारत की मौजूदा राजनीति को समझने के लिए, राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांतों को छोड़ना होगा. समाज के अंदर-बाहर जो कुछ घट रहा है, उसका प्रतिबिंब जिस राजनीति में होगा, उसे व्यापक लोक समर्थन मिलेगा. यह सूत्र, बिहार-झारखंड की वर्तमान राजनीति समझने की कुंजी है.
1991 के बाद लालू प्रसाद के दल को व्यापक लोक समर्थन मिला. इसका मूल कारण था कि तत्कालीन बहुसंख्यक समाज की पीड़ा को उनकी राजनीति ने स्वर दिया. मुद्दा बनाया. पीड़ा क्या थी? विषमता, सवर्ण अत्याचार. एक जड़ बन चुके पुराने हिंदू समाज के पुरातन मूल्यों, जो बहुसंख्यक समाज को आत्मसम्मान से जीने का अवसर नहीं देता था, के प्रति गहरा आक्रोश.
मंडल की राजनीति को बहुसंख्यक लोगों का यही आक्रोश ऊर्जा देता था. इस सामाजिक बेचैनी को राजनीतिक स्वर-मुहावरे में जिस दल ने बांधा, उसे लोक समर्थन मिला. तब पिछड़ों को आत्मसम्मान-बराबरी का दरजा दिलाने की बात लालू प्रसाद के दल ने की, उन्हें समर्थन भी मिला.
पर बिहार-झारखंड के समाज ’91 के उस मानस से आगे निकल आये हैं. लेकिन राजनीतिक दल 1991 में ही ठहरे हुए हैं. मौजूदा समाज की पीड़ा-बेचैनी कुछ और है, उसे राजनीतिक स्वर कोई दल नहीं दे पा रहा. इसलिए दोनों राज्यों में किसी एक दल की राजनीति को व्यापक लोक समर्थन भी नहीं मिल पा रहा. समाज की अंदरूनी स्थिति-मानस से कट कर कोई राजनीति शून्य में नहीं होती.
’91 के बाद बिहार में सत्ता अगड़ी जातियों से छिटक कर मध्यवत जातियों के पास गयी. बाद में नीतीश कुमार के हटने पर एक महत्वपूर्ण सामाजिक आधार कमजोर हुआ. पर यह सत्ता आकर 15 वर्षों से एक जमात के पास टिक गयी. अगड़ों के हाथ से निकल कर पिछड़ों के एक वर्ग के हाथ में कैद. स्वाभाविक क्रम में यह सत्ता मध्यवर्ण जातियों से निकल कर अत्यंत पिछड़ों-दलितों में पहुंचती, तो स्थिति भिन्न होती. पिछड़ों-दलितों में सत्ता साझेदारी की सामाजिक भूख पैदा हो चुकी थी.
इस सामाजिक भूख को रामविलास पासवान की पार्टी ने पहचाना और स्वर दिया. लोजपा की राजनीतिक रणनीति, मौजूदा अति पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों की समाज नीति से तालमेल मिला कर चल रही थी, इसलिए लोजपा को समर्थन मिला. बावजूद इसके कि कुख्यात लोगों को लोजपा ने चुनाव मैदान में उतारा. इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में बसपा को समर्थन मिला. समाज के अंदर के सवालों को उठानेवाली राजनीति को ही लोक समर्थन मिलता है.
इसी तरह समाज का एक तबका धर्म, अयोध्या विवाद के संदर्भ में सोचता था. उसे भाजपा ने स्वर दिया, उसे समर्थन मिला. जब भाजपा के इस समर्थक वर्ग को धर्म की राजनीति का प्रपंच समझ में आया, उसका मानस बदला, तो भाजपा इस बदले मानस को नहीं पहचान सकी. सत्ता से बाहर हो गयी. 2004 के लोकसभा चुनावों तक भाजपा ’91 अयोध्या मानस में जी रही थी, जबकि उसके समर्थक इसे छोड़ आगे निकल गये थे.
बिहार में राजद की स्थिति जो 2005 में है, देश में भाजपा की यही स्थिति 2004 में थी. दोनों अपने समर्थक वर्गों के बदले मानस को पहचान नहीं पाये. लोकसभा के पिछले चुनावों में भाजपा की हार का स्पष्ट संकेत था कि ‘कमल’ और ‘धर्म’ की राजनीति से समाज का मानस आगे निकल गया है. बिहार में राजद को मिला अप्रत्याशित झटका और झारखंड में झामुमो के स्वप्न भंग के पीछे भी साफ संकेत है कि जाति-समुदाय की राजनीति से समाज आगे बढ़ रहा है.
इस आगे बढ़े समाज के मानस को जो दल या राजनीति स्वर देगा, उसे राजनीतिक समर्थन मिलेगा. फिलहाल झारखंड, बिहार के समाज के मानस के अनुरूप कोई राजनीतिक दल मुद्दे नहीं उठा रहा, इसलिए समर्थन नहीं मिल रहा. समाज में अंदरूनी बंटवारा है. खेमेबंदी है. इसलिए राजनीति भी छोटे-बड़े दलों में बंटी है. अंग्रेजी में इसे कहेंगे ‘फ्रैगमेंटेड सोसाइटी, फ्रैगमेंटेड पालिटिक्स’ (विभाजित समाज-विभाजित राजनीति). 21वीं सदी के बिहारी-झारखंडी समाज के नये मानस के अनुरूप नयी राजनीति चाहिए. ऐसी राजनीति ही इस राजनीतिक ठहराव को तोड़ सकती है.
अविकास की राजनीति : यह विचित्र संयोग है कि ’91 के बाद देश के दूसरे राज्यों में आर्थिक प्रगति मूल मंत्र बना, तो बिहार-झारखंड के राजनेताओं ने एक नयी राजनीति विकसित की ‘अविकास की राजनीति’. सिद्धांत के स्तर पर नहीं, कर्म के स्तर पर. लोगों को पिछड़ा रहने दो. अज्ञानी रहने दो. अविकसित रहने दो. बिजली मत दो. सड़क मत दो. उद्योग-धंधे खत्म करो. बैलगाड़ी की बात करो. कंप्यूटर का उपहास उड़ाओ. जाति को उपजाति में बांट कर हरेक को एक-दूसरे से स्पर्द्धा में रखो. जो विकास की बात करते हैं, उनका मजाक उड़ाओ.
सिद्धांत बन गया कि प्रगति-विकास से वोट नहीं मिलते. इन गुजरे 15 वर्षों में दक्षिण के राज्यों में प्रति व्यक्ति आमद तीन गुनी-चार गुनी हो गयी. मजदूर बन कर बिहारी-झारखंडी विकसित राज्यों में रोजगार के लिए जाने लगे. बिहार के करोड़ों मजदूर देश के विभिन्न हिस्सों में कठिन जीवन बीता रहे हैं.
परदेस का अपमान, कठिन चुनौतियां, और जीतोड़ श्रम ने प्रवासी बिहारियों का मानस बदला है. पिछले दिनों दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ में दर्जनों बिहारी मजदूर मरे. अनेक घायल हुए. इसमें अधिसंख्य अति पिछड़ी जातियों के थे. घायल बिहारी मजदूरों ने टेलीविजन चैनलों-अखबारों से कहा, मधेपुरा-मधुबनी में रोजगार होता, तो हम क्यों मरने दिल्ली आते? बिहारी मजदूरों-श्रमिकों ने रोते हुए बिहारी के अविकास की बात की. लालू प्रसाद की कटु आलोचना की.
स्वाभाविक है कि ‘अविकास की राजनीति’ के आधार पर वोट बैंक बनानेवाले राजनेता समाज के स्तर पर बदल रहे इस मानस-भावना को पहचान नहीं सके? मधेपुरा-मधुबनी वगैरह राजद के गढ़ रहे हैं. उस गढ़ से राजद का सफाया और दिल्ली के जंक्शन पर हुए उस हादसे में वहां के पीड़ित मजदूरों की व्यक्त भावनाओं के बीच एक साफ रिश्ता है, उस रिश्ते को न पहचाननेवाली राजनीति को कैसे वहां समर्थन मिल सकता है?
बिहार-झारखंड की नयी युवा पीढ़ी अन्य राज्यों में आ रहे बदलाव देख रही है. दक्षिण-दिल्ली में हजारों बिहारी युवा पढ़ रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, ये लोग बिहार लौटते हैं, तो बाहर की बदलती तस्वीर भी साथ लाते हैं. साम्यवादी गढ़ कलकत्ता, साम्यवादियों के नेतृत्व में अपने पुराने औद्योगिक समृद्धि और गौरव वापस लाने में लगा है. लाखों बिहारी दरबान, ड्राइवर, कूली बदलते बंगाल को देख रहे हैं.
ये बिहार लौट कर अपनी स्थिति पर अब बेचैन होते हैं. मंडल के 15 वर्षों बाद सामाजिक समता के साथ-साथ यह जमात अब आर्थिक समृद्धि चाहती है. सूचना क्रांति-टीवी के दौर में गांव-गांव ‘विकास’ की चर्चा होती है. यह नया मुहावरा है, जिसे इन राज्यों की राजनीति नहीं समझ पा रही.
झारखंड के विधानसभा चुनावों में भाजपा का ग्राफ कैसे बढ़ा? लोकसभा चुनावों में कुल 14 में से एक सीट पानेवाली भाजपा अचानक विधानसभा चुनावों में कैसे बढ़ गयी? भाजपा के लोगों ने अत्यंत चतुराई से नारा दिया, ‘झारखंड को बिहार’ बनने से रोकें? शिबू सोरेन, लालू प्रसाद के मुहावरे-लफ्फाजी व अविकास की राजनीति से वोट बैंक खड़ा करने की बात करते हैं.
भाजपा ने इसे पकड़ा.
क्या, अब झारखंड में ‘अपहरण और अविकास’ की राजनीति शुरू होगी. भाजपा को अपने बिखरे-नाराज समर्थक वर्ग को खड़ा करने में इस नारे से भी मदद मिली. भाजपा गंठबंधन के पुनर्जीवन का यही मूलमंत्र है. धर्म का ज्वार पैदा कर भाजपा मौजूदा सफलता नहीं पाती. सामाजिक समता बनाने के बाद आज लालू प्रसाद-शिबू सोरेन इस नये आर्थिक मानस की भूख को समझ कर इसे अपनी राजनीति का औजार बनाते, तो दृश्य अलग होता.
मध्य वर्ग का उदय : देश के सबसे पिछड़े राज्य होने के बावजूद झारखंड-बिहार में ’91 के बाद एक नया मध्य वर्ग उभरा है. इस मध्यवर्ग का सरोकार-प्राथमिकताएं अलग हैं. नगरों, महानगरों और विकसित राज्यों की राजनीति-मुद्दों को यह नया मध्य वर्ग गहराई से प्रभावित कर रहा है.
बिजली, पानी, सड़क, उद्योग, विकास, इसके लिए मुद्दा और सपने हैं. झारखंड-बिहार में भी यह मध्य वर्ग जमीन बना रहा है. इस मध्य वर्ग में हर जाति-धर्म के लोग हैं. बाहरी-भीतरी हैं. धीरे-धीरे यह एक जमात में तब्दील हो रहा है. इस समाज की आकांक्षाएं बड़ी हैं. अरमान बड़े हैं. यह दुनिया स्तर पर कामयाब होना चाहता है. टीवी-शिक्षा ने इसे बदलती दुनिया से जोड़ दिया है. इस वर्ग का संबंध ‘ग्लोबल विलेज’ से बन रहा है.
भ्रष्टाचार या मूल्य इस वर्ग के मुद्दे नहीं है. किसी भी शर्त्त पर सफलता और सफलता के उपयुक्त माहौल की तलाश इस मध्य वर्ग का दर्शन है. यह वर्ग राजनीति या सरकार से अब ‘एकाउंटबिलिटी’ और ‘परफारमेंस’ (दायित्व और ठोस उपलब्धि) चाहता है. जो राजनीतिक ताकतें इसमें अक्षम हैं, यह मध्य वर्ग उसके खिलाफ है.
जाति-धर्म : जाति की राजनीति की सीमाएं धीरे-धीरे कमजोर हो रहीहैं जनता के बीच. दलों और नेताओं के बीच नहीं. जाति की राजनीति के नाम पर परिवार-रिश्तेदारों की राजनीति को जागरूक मतदाता पहचानने लगे हैं. जाति के नाम पर बड़े नेता अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों को कैसे समृद्ध-ताकतवर बनाते हैं, गद्दी सौंपते हैं, यह उसी जाति के गरीब समझने लगे हैं.
जातिवाद के खिलाफ यह लोक जागरण प्रक्रिया धीमी है, पर बिहार-झारखंड के चुनावों में इस चेतना का आंशिक असर है.
धर्म का नाम लेकर, भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने का आवाहन कर कैसे भाजपा भ्रष्टाचार, दंभ, कुशासन की प्रतीक बनती गयी, यह भी जागरूक मतदाताओं ने पहचान लिया है. लोकसभा के बाद भाजपा की फजीहत के पीछे यही लोक मानस है. इसलिए भाजपा अब विकास को एजेंडा बनाने की बात कर रही है. अब बिहार में यही फजीहत राजद की हुई है, तो लालू प्रसाद भी विकास की भाषा बोल रहे हैं.
खंडित समाज, खंडित जनादेश : सिद्धांतविहीन-विचारविहीन राजनीति अंतत: षड्यंत्र, चाटुकारिता और व्यक्तिवाद पर आकर सिमट जाती है. सोवियत रूस की टूट के पहले ही नारा आ गया था कि विचारों का अंत हो गया है. इतिहास खत्म हो गया है. सही है कि पश्चिमी भौतिक संस्कृति-उपभोक्तावाद के खिलाफ विचार ही लड़ सकता था. इसलिए उपभोक्तावाद ने पहले विचार, वाद सिद्धांत को जीवन-समाज में अप्रासंगिक बना दिया. दुनिया स्तर पर. इसके बाद सोवियत रूस बिखरा.
’90 के बाद भारतीय राजनीति भी विचारों-वादों-सिद्धांतों से कट कर ‘धर्म’-‘जाति’ के भावात्मक मुद्दे पर सिमट गयी. जैसे जीवन हमेशा आवेग-भावना से नहीं चलता, वैसे ही समाज राजनीति-दल ‘भावनाओं के कारण बने वोट बैंक’ से नहीं चलते. भावनाएं-आवेग, ऐतिहासिक मोड़ होते हैं, इससे ताकत मिलती है, ऊर्जा मिलती है. लेकिन इस अर्जित ऊर्जा-शक्ति को विचार-वाद ही राजनीति में बदलते हैं.
स्थायी बनाते हैं. झारखंड-बिहार में उस ‘ठूंठ’ (जाति-धर्म) की राजनीति को बीच-बीच में उभारने की सुनियोजित कोशिशें होती रही हैं. लालू प्रसाद पर आरोप लगता रहा है कि वे कैसे धुर आरक्षण विरोधी, नेताओं की गुपचुप मदद से अपने समर्थकों को एकजुट रखते रहे हैं. लालू प्रसाद-आनंद मोहन साथ कैसे आये थे? भाजपा भी बीच-बीच में राम मंदिर का ज्वार पैदा करना चाहती है.
पर जैसे एक आवेग-भाव, जीवन में चिर स्थायी नहीं हो सकता, वैसे ही सामाजिक जीवन में बार-बार एक ही आवेग -भाव पैदा नहीं हो सकता. वोट नहीं दिला सकता. राजनीतिक दल, विचार-सिद्धांत से ही चल सकते हैं, जब राजनीति में आवेग-भाव (जाति-धर्म) अहम हो गये, तो व्यक्तिवादी दल पनपने लगे. व्यक्ति आधारित दलों (झामुमो, राजद, लोजपा, सपा वगैरह) में अंदरूनी लोकतंत्र होता ही नहीं. भाई, साले, सरहज, बेटा-बेटी और उनके रिश्तेदार.
21वीं सदी के लोकतंत्र का एक चेहरा यह है कि व्यक्ति आधारित दल, लोकतंत्र बचाने-चलाने की बात करते हैं. जिन दलों में इनके क्षत्रपों की तानाशाही-निरंकुशता चलती है, वे झारखंड-बिहार में लोकशाही-जम्हूरियत की आवाज लगाते हैं. विचार-सिद्धांत के आधार पर पार्टी चलेगी, तो उसके वार्षिक अधिवेशन होंगे, फर्जी मेंबर बनाओ अभियान नहीं होगा, दल के अंदर लोकतांत्रिक चुनाव कार्यपद्धति होगी, ऐसे दल अपनी अर्थनीति, समाज नीति, सांस्कृतिक नीति वगैरह बनायेंगे.
अगर यह राजनीतिक माहौल होगा, तो जनता विचारों के आधार पर दलों का चयन कर लेगी. फिर किसी को बहुमत न मिले, त्रिशंकु स्थिति रहे, ऐसा नहीं होगा. पर जब व्यक्ति आधारित दल होंगे, तो समाज छोटे-छोटे मुद्दों-स्वार्थ-हितों पर बंटेगा. जाति, धर्म, गोत्र, वंश पर बंटेगा.जब समाज ऐसे मुद्दों पर खंडित रहेगा, तो जनादेश खंडित होगा. खंडित समाज का खंडित जनादेश.
मुसलमान : मुसलमानों के लिए सुरक्षा सबसे बड़ा सवाल है. जिस दिन वे सुरक्षित, मुख्यधारा का हिस्सा महसूस करेंगे, उनके मतदान का रुझान बदल जायेगा. अगड़ों को एकजुट करना ताकि पिछड़े गोलबंद हो, मुसलमानों को असुरक्षित रखना, ताकि वे सुरक्षा के आधार पर गोलबंद होकर वोट बैंक बनें, यह दांव-पेंच अब तक बिहार-झारखंड हिंदी क्षेत्रों में खूब चला है. पिछले 20 वर्षों की राजनीति में इन्हीं हथियारों से वोट बैंक बनाये गये हैं.
पर मुसलमानों की नयी पीढ़ी साहस के साथ इस असुरक्षा बोध से खुद निकल रही है, उसे उपयुक्त माहौल चाहिए. पिछले 15-20 वर्षों में सामने आयी पीढ़ी नेताओं के इन षड्यंत्रकारी दांव-पेंचों से नफरत करती है. ये युवा मुसलमान धीरे-धीरे निर्णायक होंगे और अपने विकास का हिसाब भी मांगेंगे. बिहार-झारखंड में यह होने लगा है. मुसलमानों की यह युवा पीढ़ी, हिंदुओं, ईसाइयों, अगड़ों-पिछड़ों की उस पीढ़ी के, सपने-जीवन दर्शन से बंधी है कि ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’.
परिवारवाद, भ्रष्टाचार : राजनीतिक दलों और मध्य वर्ग के लिए परिवारवाद-भ्रष्टाचार मुद्दे नहीं हैं. पर समाज के गरीबों के लिए है. इन मुद्दों पर आदिवासियों के रुख से देश के पढ़े-लिखे उच्च तबकों-राजनीतिक दलों-मध्यवर्ग को सीखना चाहिए. आदिवासी जीवन, आज भी सरल, निश्छल और सहज है. प्रकृति से इसका तादात्मय है. ताना बाना है. झूठ, छल, प्रपंच और षड्यंत्र की शहरी दुनिया से अलग.
1991 में नरसिंह राव सरकार बचाने में सांसद रिश्वत कांड की चर्चा उभरी. तीन सांसद-सूरज मंडल, शैलेंद्र महतो और शिबू सोरेन झारखंड से ही थे, जिन पर यह आरोप लगा. झारखंड की अपढ़, गरीब जनता ने इन्हें चुनावों में हरा दिया. देश के पढ़े-लिखे शिक्षित वर्ग में अपनी जाति, वर्ग, समुदाय के भ्रष्ट नेताओं को जिताने की स्पर्द्धा पिछले 15 वर्षों से है.
ऐसे माहौल में आदिवासियों ने अपने नेताओं को इस आरोप के बाद हराया. इस विधानसभा चुनाव में शिबू सोरेन जैसे बड़े नेता के दोनों बेटों को लोगों ने हराया. उस क्षेत्र में हराया, जहां शिबू सोरेन के संघर्ष के गीत गूंजते रहे हैं. यह असाधारण घटना है. यही नहीं, झारखंड में विभिन्न दलों के दिग्गजों ने अपने बेटों को टिकट दिलाया था, वे सभी ‘होनहार उत्तराधिकारी’ पराजित हो चुके हैं.
पिछली सरकार के जो सबसे भ्रष्ट लोग थे, उन्हें झारखंड की जनता ने हराया, धनपतियों को हराया. यह सुखद संकेत है. इस जनभावना को समझना होगा. आज भी झारखंड में टानाभगत हैं, जिनका पवित्र रहन-सहन, त्याग, स्पष्टता, गांधीवादी जीवन, इतिहास बदलने में बड़े कारक होंगे. पवित्र बिरसाइत आज भी बिरसा मुंडा के पुराने वसूलों को स्मरण कराते हैं. इस सामाजिक मानस का असर राजनीति में दिखाई देता है.
नयी राजनीति के स्रोत
झारखंड-बिहार समेत हिंदी इलाके नयी राजनीति की प्रतीक्षा में हैं. बाढ़ आने पर बाढ़ में डूबे गरीब-सुखे मछली मार कर आनंद उठाते हैं, यह क्रूर टिप्पणी करनेवाली राजनीति इस बदलाव को नहीं समझ पा रही. ’91 के उदारीकरण के बाद तेजी से भारत से मध्यवर्ग उभरा है. हालांकि बिहार में यह मध्यवर्ग छोटा है. पर युवाओं की तादाद बिहार में भी बढ़ी है, जिनमें बेचैनी और महत्वाकांक्षाएं हैं. इन सबके हित-स्वार्थ अलग-अलग हैं.
गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की आबादी देश में 40 करोड़ से अधिक है, बिहार में इन गरीबों की बहुतायत है. इनकी समस्याएं अलग हैं. पहले इस गरीब जमात-जाति की राजनीति समाजवादी और साम्यवादी करते थे. बाद में नक्सली लोगों ने की. बिहार में भाकपा (माले) इनकी बात करती है. इस तरह यहां खेमों में बंटा समाज है और खेमों में बंटी राजनीति है.
समाजशास्त्री पहले के मध्य वर्ग को ही क्रांति-परिवर्तन का अगुआ मानते थे. नैतिकता, मूल्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज, यही वर्ग उठाता था. आजादी की लड़ाई में इसी वर्ग के नेतृत्व ने भारत को एक नयी दिशा दी. हालांकि यह मध्यवर्ग आज आत्मकेंद्रित हो गया है.
भ्रष्टाचार-मूल्य इसके लिए मुद्दा नहीं हैं. पर गरीबों (चाहे वे जिस जाति, धर्म क्षेत्र के हो) के बारे में ममता है. सूनामी लहरों के प्रकोप के बाद जिस तरह मध्यवर्ग ने उदारता से दान किया, वह इसका प्रमाण है. जो भी राजनीतिक विचार या दल ईमानदारी से गरीबी, भ्रष्टाचार मिटाने के अभियान में लगेगा, उसे इस वर्ग का समर्थन मिलेगा. फिलहाल यह बड़ी ताकत (पैसा और संख्या दोनों दृष्टि से) राजनीति के प्रति निरपेक्ष हो रहा है, यह चिंताजनक संकेत है.
इतिहास कहता है कि बड़े बदलाव के लिए वही राजनीति-नेतृत्व-नायक स्वीकार्य होता है, जिसे सारा समाज अपना मानता है. हर जाति-धर्म-समुदाय में ऐसे नायकों-विचारधारा को समर्थन मिलता है. आजादी के बाद समाजवादी (खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश वगैरह) आंदोलन या साम्यवादी आंदोलन के शिखर नेता-नेतृत्व अगड़ी जातियों के हाथ में रहा और उन्होंने पिछड़ों-दलितों-गरीबों-मुसलमानों की लंबी लड़ाई लड़ी. सैकड़ा में साठ का नारा उन्होंने दिया. इसी प्रक्रिया से जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया जैसे सर्वमान्य नेता निकलते हैं.
यह प्रक्रिया भारतीय समाज में ठहर गयी है, इसलिए सर्वमान्य नेता नहीं पनप रहे. जाति, गोत्र, उपजाति के नेता-प्रवक्ता बन रहे हैं. बिहार के लालू प्रसाद में यह क्षमता थी कि मंडल की राजनीति के बाद वह बुनियादी समस्याओं को उठा कर हर वर्ग-जाति के समर्थित नेता बन सकते थे.
इन राज्यों में एक नयी राजनीतिक पहल की जरूरत है. पहल यह कि अत्यंत गरीब, चाहे वे जिस जाति, धर्म, समुदाय के हों, उन्हें यह समाज समृद्ध और ताकतवर बनाने पर आम सहमति बनाये. जो दलित हैं, पिछड़े हैं, गरीब मुसलमान हैं. उन्हें विशेष मौका मिलना चाहिए ताकि एक समतापूर्ण समाज का सपना साकार हो.
जहां सामाजिक विषमता है, वहां कठोर कदम उठाने के लिए समाज का मानस तैयार हो. जाति, धर्म, समुदाय के आधार पर अलग-अलग बरताव बंद हो. इस देश की न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त करने की समयबद्ध पहल हो. करोड़ों-करोड़ों मुकदमे लंबित हैं और लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा. नयी राजनीति, न्यायिक प्रक्रिया को त्वरित करने के अभियान से ताकत पा सकती है.
सुशासन अगला मुद्दा है. बेहतर शासन, परिणामोन्मुख शासन हमारे समय की एक बड़ी जरूरत है. नौकरशाही, पूरी राज्यसत्ता के लिए आजादी के बाद से ही गंभीर समस्या है. जवाबदेह नौकरशाही कैसे विकसित हो.
पूरी व्यवस्था के लिए यह चुनौती है. योजना आयोग के पूर्व सचिव एनसी सक्सेना ने एक बार कहा था कि कल्याणकारी योजना मद में जो पैसे (लगभग 72000 करोड़ रुपये) खर्च होते हैं, उन्हें अगर गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों में सीधे बांट दिया जाये, तो 2-3 वर्षों में 30 करोड़ लोगों का जीवन बदल जायेगा. केंद्र से चला एक रुपया गांव तक पहंचाने में पांच रुपये लगते हैं. यह पांच रुपया प्रशासनिक खर्च है. इस फिजूलखर्ची और अनुत्पादक व्यय को रोकने की बात, नयी राजनीति का महत्वपूर्ण अंश हो सकता है.
प्रशासन को चुस्त, सक्षम (इफीशियंट) और जवाबदेह (एकाउंटेबुल) बनाना किसी भी पार्टी-सरकार के लिए सबसे अहम प्राथमिकता है. दाम बांधों, जमीन बांटों जैसे नारे समाजवादियों ने लगाये, उन्होंने ही प्रशासनिक सुधारों की बात उठायी. मैकाले शिक्षा पद्धति, अंग्रेजों के जमाने के कानूनों को बदलने का सवाल उठाया, ये सवाल आज भी बदले संदर्भ में मौजूद है. पर उठानेवाले कहां हैं?
आज चीन दुनिया में विकास की नयी इबारत लिख रहा है. पूरी दुनिया देख रही है कि अपने पड़ोसी देशों जापान-रूस-ताइवान से 100-50-50 वर्षों के पुराने विवादों को चीन ने कैसे झटके में सुलझा लिया.
चीन-रूस विवाद, माओ-स्तालिन नहीं सुलझा सके, चीन के नये नेतृत्व ने चुटकी में हल कर लिया. चीन-ताइवान के बीच पचास वर्ष बाद हवाई संपर्क कायम हो गया. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से लगातार तनावपूर्ण रिश्ते को चीन-जापान ने सुलझा लिये. क्यों, क्योंकि चीन की ‘अर्जुन दृष्टि’ दुनिया की महाशक्ति बनने में लगी हुई है.
पूरा यूरोप एक संघ बन रहा है. पर हम? भारत-पाक विवाद, हिंदू-मुसलमान-ईसाई विवाद, जाति-उपजाति, वंश-गोत्र विवाद में जी रहे हैं? बदलती दुनिया की आहट न हमारी राजनीति को है. न हमारे राजनेताओं को? इन सवालों के ईद-गिर्द एक नया मानस बनाने का अभियान जो चलायेगा, वह नयी राजनीति का सूत्रधार बनेगा.
इस देश में क्षेत्रीय विषमता कैसे बढ़ रही है? दक्षिण के राज्य, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड से पचासों वर्ष आगे निकल चुके हैं. उनका सीधा संपर्क यूरोप-अमेरिका से है. बंगलूर, चेन्नई, कोच्चि, हैदराबाद, त्रिवेंद्रम जाइए, वहां हवाई अड्डे से रोज देश-विदेश के अनेक जहाज उड़ान भरते है. कई जगह तो हर 10-20 मिनट पर एक-एक उड़ान. तुलना कर लें, पटना, रांची, बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ से. बमुश्किल एकाध विमान दिन में आते-जाते हैं.
दक्षिण की सड़कों पर जो बोल्वो बसें 120-130 किमी की रफ्तार से चलती हैं, उसकी कल्पना हिंदी राज्य नहीं कर सकते. कभी देश का नैतिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक नेतृत्व पाटलीपुत्र, काशी और प्रयाग किया करते थे, आज? बेंगलूर, हैदराबाद, चेन्नई वगैरह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क का ठौर बन रहे हैं? हिंदी इलाके के राजनेताओं से पूछें, उन्हें शायद ही इस बदलाव का एहसास हो.
इतिहास, दृष्टि देता है, भविष्य संवारने के लिए, सीख देता है. दुनिया में जो मुल्क, कौम या समाज ज्ञान-टेक्नोलाजी के क्षेत्र में पीछे छूट जाते है, वे गुलाम बनने के लिए ही अभिशप्त हैं. मुट्ठी भर अंग्रेजों ने करोड़ों की आबादी पर क्यों-कैसे शासन किया? वे टेक्नोलाजी (औद्योगिक क्रांति) और ज्ञान में आगे थे, इस कारण श्रेष्ठता-ताकत में वे शिखर पर पहुंचे, जहां कहा गया कि उनके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था.
इस सूचना क्रांति, तकनीकी क्रांति, ग्लोबल विलेज को पोस्ट इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन एरा’ (औद्योगिक क्रांति के बाद का दौर) कहा जाता है. इस दौड़ में दक्षिण के राज्य आगे निकल गये हैं. वहां जाकर कुलीगीरी, टैक्सी ड्राइवर, दरबान का काम करते हिंदी भाषियों को देख कर आप इतिहास को स्मरण कर सकते हैं कि ज्ञान, तकनीकी में पीछे छूटे लोगों की नियति क्या होती है? अच्छे पदों पर काम कर रहे हिंदीभाषियों पर सबकी नजर जाती है, पर बहुसंख्यक स्लमों में जलालत की जिंदगी जीते श्रमिकों पर नहीं?
हिंदी इलाकों की यह नियति क्यों हैं? एक चेन्नई बंगलूर में सैकड़ों इंजीनियरिंग कालेज हैं. प्रबंधन के दुनिया स्तर के संथान हैं. बिहार-झारखंड में? एक भी देश स्तर का संस्थान? दक्षिण के ये शिक्षण संस्थाएं बिहार-झारखंड-उत्तरप्रदेश के लड़कों पर निर्भर हैं. पैसा इन गरीब राज्यों से जाता है और उससे विकास कर बेंगलूर ‘सिलिकान वैली’ (अमेरिका) बन गया है, और हम? यही हालत स्वास्थ्य क्षेत्र में है. सर्वश्रेष्ठ अस्पताल दक्षिण में खुल रहे हैं, मरीज हिंदी इलाकों के जाते हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्रों में अपार संभावनाएं हैं, हिंदी प्रदेशों में. नयी राजनीति के लिए इन क्षेत्रों में सृजन की अपार संभावनाएं हैं? कोई विचार या दल इन संभावनाओं को नहीं देख पा रहा.
लोकतंत्र का परिमार्जन : समाजशास्त्री-चिंतक कहते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी राजा-महाराजाओं की शताब्दी थी, तो बीसवीं शताब्दी लोकतंत्र की शताब्दी है. बीसवीं सदी के अंत तक संसार के 192 देशों में से 119 देशों ने लोकतांत्रिक ताना-बाना अपना लिया है. साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की सीमाओं से परेशान लोगों की तादाद भी बढ़ रही है. इसलिए अनेक लोकतांत्रिक देश अपनी सीमाओं से निकलने के अनेक प्रयोग कर रहे हैं, ताकि प्रतिनिधिमूलक प्रजातंत्र बेहतर तरीके से काम करे. पिछले दिनों दुनिया के मशहूर समाज विज्ञानी जान कीन ने दिल्ली में व्याख्यान दिया. वह ब्रिटेन के ‘बेस्टमिंस्टर’ विश्वविद्यालय में हैं.
उनका मानना है कि पुराने प्रजातंत्रों से भी लोगों को मोह भंग हुआ है. बोरियत फैली है. प्रजातंत्र की निर्दोषता पर भी लोक विश्वास हिला है. उनके अनुसार लोकतंत्र के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन रक्षा और आवास के क्षेत्र में कैसे सामाजिक समानता स्थापित हो?
हर नागरिक को ये सुविधाएं एकसमान कैसे मिले? उन्होंने माना कि लोकतंत्र की सबसे अच्छी सहचर विनयशीलता है. लोकतंत्र को विनयशील बनाना सबसे बड़ी मौजूदा जरूरत है. विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, समुदायों, जातियों से निकले लोग एक साथ मिल कर विनयशीलता की बुनियाद पर ही सह-अस्तित्व बना सकते हैं. बहुभाषी, बहुरंगी समाज के लिए नम्रता, आत्म नियंत्रण, शालीनता और विनयी होना, जरूरी तत्व हैं. ये तत्व, लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़े हैं. पर हमारे राजनीतिक दल या राजनीतिक संस्कृति? उद्दंडता, अविनयी, रुख, अशालीनता और अपराध मनोवृति पर टिका है, हिंदी राज्यों का लोकतंत्र.
दुनिया स्तर पर लोकतंत्र के मिजाज-संस्कार में आ रहे बदलावों को हिंदी राज्य के राजनेता-दल समझ पाते, तो इन राज्यों की राजनीति इतनी बांझ, अनुर्वर और परती न होती. झारखंड-बिहार की स्थिति बताती है कि लोकतंत्र को प्राणवान, सार्वभौम और जीवंत बनाने के अवसर यहां खूब हैं, पर राजनेता-राजनीति इस अवसर-जमीन को पहचान नहीं पा रहे. बिना राजनीति कभी समाज नहीं बदलता, यह कटु यथार्थ है.
भ्रष्टाचार दूसरा गंभीर सवाल है. 1974 में बिहार से एक सांसद होते थे, तुलमोहन राम. उन पर डेढ़ लाख रुपये घूस लेने का आरोप लगा था. एक निजी कंपनी से. आरोप था कि सांसद पद का दुरुपयोग कर उन्होंने एक निजी पार्टी को तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र से मालगाड़ी का ‘वैगन’ प्राथमिकता पर एलाट करा दिया था. इस मुद्दे से संसद के अंदर और बाहर इंदिराजी के नेतृत्ववाली कांग्रेस हिल गयी.
ट्रांसप्रेंसी इंटरनेशनल (भ्रष्टाचार की जांच करनेवाली संस्था) के अनुसार पिछले एक वर्ष में निजी कंपनियों, कॉरपोरेट घरानों ने 32000 करोड़ भारत की नौकरशाही (अफसरों) को बतौर घूस दिये हैं. ठेका लेने. फेवर पाने, अपने पक्ष की नीति बनवाने के लिए. इस रिपोर्ट के बाद कहीं एक शब्द चर्चा नहीं हुई, उस संसद में भी नहीं, जहां डेढ़ लाख के तुलमोहन प्रकरण की आवाज गूंजी थी. मध्यवर्ग में आज भी एक तबका इस भ्रष्टाचार के खिलाफ है, पर कोई दल या राजनीतिक मंच यह मुद्दा उठाने को तैयार नहीं.
उसी तरह अनुत्पादक खर्चों का है. 1980 में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रो जयदेव सेठी ने कहा था कि बगैर श्रम किये 20 लाख लोग पांच सितारा जीवन जीते हैं. ये अनुत्पादक लोग हैं? पूर्व विधायक, सांसद, मंत्री, अफसर, दलाल वगैरह. इनके खर्च का बोझ सरकार उठाती है.
बेतहाशा बढ़ता नेताओं का सुरक्षा खर्च, वैभवपूर्ण जीवन व्यय, जनता उठा रही है. डा लोहिया ने ‘तीन आने बनाम दस हजार’ की बहस छेड़ी थी, आज यह संकट गहरा गया है, पर किसी दल में ऐसे सवालों पर आवाज नहीं उठती!
इसी तरह दलाली का मामला है. दलाल, लॉबिस्ट, राजनीति के सबसे ताकतवर तत्व बन गये हैं. हर बड़े नेता के यहां दलाल हैं. इस दलाली संस्कृति और कॉरपोरेट राजनीति के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए, तब नयी राजनीति की पृष्ठभूमि बनेगी.
दिनांक : 28.03.05

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