मनुष्य के जीवन के पराभव का तीसरा पतन द्वार है लोभ. मानव के सभी विकारों में लोभ ऐसा मानसिक विकार है, जो उसके उत्कर्ष में बाधा डालता है. लोभी व्यक्ति आचरण से हीन हो जाता है और वह अपने स्वाभिमान को भुला कर किसी कामना के वशीभूत होकर चाटुकार बन जाता है.
इस प्रकार उसका अपना व्यक्तित्व तो नष्ट हो ही जाता है और किसी से कुछ पाने की आशा में वह अपना सब कुछ गंवा भी देता है. लोभ राजनीति का हो, किसी ऊंचे पद की प्राप्ति का हो, अर्थ प्राप्ति का हो, वासना के वेग का हो या किसी से कुछ पाने की लालसा का हो, यह एक क्षणिक प्यास की तरह है, जिसकी पूर्ति के लिए मनुष्य अनैतिक बन जाता है और गलत कार्य करने लगता है. वह यह भी भूल जाता है कि उसके जीवन की कुछ मर्यादाएं भी हैं. लोभी व्यक्ति अपने जीवन में थोड़े से सुख, थोड़े से लाभ अथवा ऊंची कुर्सी पाने के लिए ऐसे लोगों के पैर छूने लगता है, जो स्वयं भिखारी होते हैं, चारित्रिक दृष्टि से गिरे हुए होते हैं.
जब हम लोभ करते हैं तो हमारा पूरा व्यक्तित्व दीन-हीन बन कर खड़ा हो जाता है, जिससे हमारी जीवन-शक्ति शरीर में हो रहे बॉयोलॉजिकल परिवर्तन से बुरी तरह आहत होने लगती है और हमारे जीवन में जो स्वाभिमान की ऊर्जा शक्ति है, वह दासत्व ग्रहण करने लगती है. इस वजह से लोभी व्यक्ति अपनी सारी मर्यादाओं और नैतिक मूल्यों को छोड़ कर यह स्वीकार करने लगते हैं कि हम दूसरी पंक्ति में खड़े लोग हैं, हम दूसरे की जयकार बोलनेवाले दूसरे की प्रशस्ति के गीत गानेवाले लोग हैं. वे यह भी मान लेते हैं कि हमें अपने जीवन में नेतृत्व नहीं करना है, पीछे की पंक्तियों में खड़ा होना है.
इसीलिए लोभी व्यक्ति अपने लोभ की पूर्ति के लिए किसी भी व्यक्ति के सामने पूंछ डुलाते हुए खड़ा हो जाता है. वैसा व्यक्ति कभी भी शासक नहीं हो सकता, क्योंकि जिस व्यक्ति पर वह शासन करना चाहता है, यदि उसी से किसी कामना की पूर्ति की आशा भी रखता है, तो वह उस पर शासन कैसे कर पायेगा. लोभ शासक बनने का सबसे बड़ा अभिशाप है. हमारे जीवन में कामनाएं अनंत हैं. यदि हम कामनाओं की पूर्ति के लोभ में फंसे रह गये, तो यह जीवन नष्ट हो जायेगा.
आचार्य सुदर्शन