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प्रकृति-पर्यावरण का मर्म बताता छठ पर्व
औरंगाबाद के सूर्य मंदिर की प्रसिद्धि है हर ओर, लाखों की तादाद में पहुंचते हैं छठव्रती दीपावली को हम-सबने विदा किया. अब छठ पूजा की तैयारी हो रही है. छठ का खयाल आते ही मन के किसी कोने से आध्यात्म की सरिता फूट पड़ती है. पर छठ की यही महिमा है कि इस आध्यात्म की […]
औरंगाबाद के सूर्य मंदिर की प्रसिद्धि है हर ओर, लाखों की तादाद में पहुंचते हैं छठव्रती
दीपावली को हम-सबने विदा किया. अब छठ पूजा की तैयारी हो रही है. छठ का खयाल आते ही मन के किसी कोने से आध्यात्म की सरिता फूट पड़ती है. पर छठ की यही महिमा है कि इस आध्यात्म की धारा निराकार या अलौकिक न होकर लौकिक हो जाती है. प्रकृति की प्रतिष्ठा को स्थापित करनेवाला यह त्योहार पर्यावरण को बचाने-संवारने को प्रेरित करता है.
आज जबकि दुनिया भर में प्रकृति-पर्यावरण को लेकर चिंता जहिर की जा रही है, लोकपर्व छठ सामूहिकता का संदेश देता है कि आयें, हम अपने आसपास हर दिन साफ-सफाई करें. पर्यावरण को बचाएं और प्रकृति पर मंडरा रहे खतरे को दूर भगाएं. प्रभात खबर छठ पूजा की परंपरा पर केंद्रीत अगले पांच दिनों तक खास आयोजन कर रहा है.
सुजीत कुमार
औरंगाबाद का देव सूर्य मंदिर कई मामलों में अनोखा है. इसका उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों में जगह-जगह मिलता है. कहा जाता है कि देव में खड़ा सूर्य मंदिर त्रेतायुगीन संरचना है और यह भी कि स्वयं निर्माण के देवता विश्वकर्मा की देखरेख में यह मंदिर तैयार हुआ. आज की तारीख में न केवल औरंगाबाद और आसपास से, बल्कि बिहार के दूर-दराज जिलों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड से भी बड़ी संख्या में यहां छठ करने के लिए व्रतधारी पधारते हैं.
लाखों की भीड़ को नियंत्रित करने में प्रशासन के काफी मशक्कत करनी पड़ती है. दरअसल, देव में छठ करने का खास महत्व है. इस वजह से बडी संख्या में लोग मन्नतें मांगते हैं. मनोकामना पूरी होने पर देव में छठ करने की. यहां हर वर्ष छठव्रतियों की जो लाखों की भीड़ पहुंचती है, उनमें अधिकतर मन्नतों से बंधे होने के चलते यहां आये होते हैं.
पौराणिक घटनाओं से जुड़ी कथाओं के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब देवता असुरों से हार गये थे, तो देव माता अदिति ने दानव जेता तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में देव सेना छठी मैया की आराधना की थीं. उनकी आराधना से प्रसन्न होकर छठी मैया ने सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का उन्हें वरदान दिया था.
षष्ठी देवी के वरदान से ही अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने आगे चल कर दानवों पर देवताओं को विजयश्री दिलायी. तभी से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हुआ. कहते हैं कि तभी यहां छठ का चलन भी शुरू हो गया. हालांकि एक मान्यता यह भी है कि इस जगह का नाम कभी यहां के राजा रहे वृषपर्वा के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के नाम पर देव पड़ा था.
एक जानकारी यह भी है कि सतयुग में इक्ष्वाकु के पुत्र व अयोध्या के निर्वासित राजा ऐल एक बार देवारण्य (देव इलाके में तब स्थित जंगलों में) में शिकार खेलने आये थे. वह कुष्ठ रोग से पीड़ित व परेशान थे.
शिकार खेलने आये राजा ने जब यहां के एक पुराने पोखरे के जल से प्यास बुझायी और स्नान किया, तो उनका कोढ़ ठीक हो गया. वह इस चमत्कार पर हैरान थे. बाद में उन्होंने स्वप्न में देखा कि त्रिदेव रूप आदित्य उसी पुराने पोखरे में हैं, जिसके पानी से उनका रोग ठीक हुआ था. यह एहसास होते ही राजा ऐल ने देव में एक सूर्य मठ का निर्माण कराया. उसी पुराने पोखरे में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की मूर्तियां भी मिलीं.
बाद में अपने बनवाये मठ में इन मूर्तियों को स्थान देते हुए उन्होंने त्रिदेव स्वरूप आदित्य भगवान को स्थापित कर दिया. राजा ऐल के साथ हुई घटनाओं की समाज में काफी चर्चा हुई और साथ-साथ यहां भगवान सूर्य की पूजा-अराधना भी शुरू हो गयी, जो आगे चल कर छठ के व्यापक आयोजन के रूप में सामने आया.
देव के बारे में एक अन्य लोककथा में सुना जाता है कि एक बार भगवान शिव के भक्त माली व सोमाली सूर्यलोक जा रहे थे. यह बात सूर्य को रास नहीं आयी. उन्होंने इन शिवभक्तों को जलाना शुरू कर दिया. अपनी अवस्था खराब देख माली व सोमाली ने भगवान शिव से बचाने की अपील की. फिर क्या था, भगवान शिव अपने भक्तों की अवस्था पर नाराज हो गये.
उन्होंने सूर्य को मार गिराया. तब सूर्य तीन टुकड़ों में पृथ्वी पर गिरे थे. जहां सूर्य के टुकड़े गिरे, उन्हें देवार्क, लोलार्क (काशी के पास) और कोणार्क के नाम से जाना जाता था.
प्रकृति के करीब पहुंचाती है पूजा मन व शरीर होता है स्वस्थ धार्मिक महत्व के साथ छठ का वैज्ञानिक महत्व भी कम नहीं है. इस पर्व का प्रकृति के साथ सबसे करीबी रिश्ता माना जाता है. सूर्य को अर्घ देने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला हल्दी, अदरक, मूली और गाजर जैसे फल-फूल स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं.
यही ऐसा त्योहार है तो सामूहिक रूप से लोगों को स्वच्छता की ओर उन्मुख करता है. यही नहीं, प्रकृति को सम्मान व संरक्षण देने का संदेश भी यह पर्व देता है. आज जबकि पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर चिंता जतायी जा रही है, तब छठ का महत्व और जाहिर होता है. इस पर्व के दौरान साफ-सफाई के प्रति जो संवेदनशीलता दिखायी जाती है, वह लगतार बनी रहे तो पर्यावरण का भी भला होगा. छठ पूजा की प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे सेहत को फायदा होता है.
पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ देने से शरीर को प्राकृतिक तौर में कई चीजें मिल जाती हैं. पानी में खड़े होकर अर्घ देने से टॉक्सिफिकेशन होता है जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है. यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों में कई ऐसे तत्व होते हैं तो प्रकृति के साथ सभी जीवों के लिए लाभदायक होते हैं. ऐसा माना जाता है कि सूर्य को अर्घ देने के क्रम में सूर्य की किरणें परावर्तित होकर आंखों पर पड़ती हैं. इससे स्नायुतंत्र सक्रिय हो जाता है और व्यक्ति खुद को ऊर्जान्वित महसूस करता है.
यादों में छठ
बचपन में पड़ी छठ गीतों की अमिट छाप
हम बच्चे थे. छठी मइया या सूर्य भगवान के बारे में कोई ज्ञान नहीं था. उस उम्र में इसकी जानकारी हो, यह जरूरी भी नहीं था. पर घर या आसपास से जब छठ के गीत सुनायी देते थे, तो बहुत अच्छा लगता था. गीतों को गाते हुए घर की महिलाओं के छठ घाटों पर जाने और अर्घ देने की प्रक्रिया को हम बड़े मनोयोग से देखा करते थे. तब हमें यही बताया गया था कि भगवान सूर्य से ही तमाम जीव-जंतुओं का जीवन चल रहा है. इसलिए सूर्य की हम पूजा करते हैं.
बचपन के वे दिन थे. माहौल हम बच्चों के इतना फेवर में हुआ करता था कि कुछ गलती भी हो जाये, तो घर के बड़े-बुजुर्ग उसे नजरअंदाज कर देते थे. यह हमारे अति उत्साह का बड़ा कारण हो जाता था. इस अति उत्साह में हम खूब उछल-कूद करते. शाम से लेकर देर रात तक दादी-मां को हम कुछ दूरी से देखा करते थे.
हम मन ही मन सोचते कि दूसरे दिन छठ घाट जाना है. इस उत्साह में हमें पता ही नहीं चलता था कि हम कब सोए और कब जग गये. छठ गीत सुनने के साथ ही नींद कहीं दूर चली जाती थी. हम घाट पर जाने के लिए झटपट तैयार हो जाते. भोर होने से पहले ही हम घाटों पर पहुंच जाते थे.
छठ घाटों पर गीत गाते हुए महिलाओं को हम देखते थे. घाट के किनारे दीयों की लौ से फूटता अद्भुत नजारा हम भूल नहीं पाते. हम सब सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा करते रहते थे. घाटों पर हम सुना करते थे- उग ना सूरज देव…यानी हम भगवान भास्कर से प्रार्थना करते थे कि आप हमारे बीच आयें ताकि यह सृष्टि चल सके. दिवाली समाप्त होने के साथ ही घर में छठ पूजा की तैयारी शुरू हो जाया करती थी. उसी समय से छठ के गीत भी घरों में गाये जाने लगते थे. हम बच्चों के लिए दिवाली से पहले ही कपड़े वगैरह की खरीदारी हो जाती थी. हम इससे भी खुश होते थे कि नया ड्रेस पहनने को मिलेगा.
लोककथाओं में सूर्य पूजा
सूर्योपासान की परंपरा है बहुत पुरानी
पुराण के मुताबिक राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी. संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने एक यज्ञ कराया. उसे पुत्रेष्टि यज्ञ कहा गया. यज्ञ के उपरांत राजा की पत्नी को खीर दी गयी.
इसके असर से रानी मालिनी को पुत्र प्राप्त हुआ. लेकिन वह मृत था. दुखी राजा प्रियवद अपने मृत बच्चे को लेकर श्मशान चले गये. पुत्र के वियोग में उन्होंने प्राण त्याग करने की ठान ली. उसी समय भगवान की मानस कन्या देवसेना अवतरित हुईं.
उन्होंने बताया कि सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के चलते उन्हें पष्ठी कह कर पुकारा जाता है. देवसेना ने प्रियवद से कहा : राजन, तुम मेरा पूजन करो. दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करो. यह सुन राजा ने पष्ठी का व्रत किया. इससे उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई.
राजा ने यह पूजा कार्तिक माघ के शुक्ल षष्ठी को की थी.
दूसरी ओर, ऐसी भी मान्यता है कि छठ पूजा महाभारत काल में शुरू हुई थी. ऐसी मान्यता है कि दानवीर कर्ण ने सूर्य की उपासना शुरू की थी. वह भगवान सूर्य ने भक्त थे. हर दिन वह पानी में कमर तक खड़े होकर सूर्य की पूजा करते. उसी उपासना के फलस्वरूप कर्ण बड़े योद्धा बने. ऐसी भी मान्यता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी भी सूर्य की पूजा करती थीं. वह बेहतर स्वास्थ्य और निरोग रहने के इरादे से सूर्य की पूजा किया करती थी.
छठगीत
कांच ही बांस के बहन्गिया, बहंगी लचकती जाये.
देखे में लागे सतरंगिया, बहंगी लचकती जाये..
छठीया पूजन सभे चलेली तिवइया.
बड़ी मन भावन लागेला समइया
बहंगी लचकती जाये..
भकती में डूबल बिया दुनिया
बहंगी लचकती जाये.
भउजी के संगे-संगे चले ला देवरवा..
मथवा प धरी छठी माइ के दऊरवा.
पीछे-पीछे चले नन्हमुनिया
पायल छनकती जाये..
कांच ही बांस के बहन्गिया, बहंगी चलकती जाये…
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