भक्तियोग में कहा गया है कि मनुष्य को वही धर्म स्वीकार करना चाहिए, जिस धर्म से अंतत: भगवद्भक्ति हो सके. एक मनुष्य समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कोई एक विशेष कर्म कर सकता है, लेकिन यदि अपना कर्म करने से कोई कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पाता है, तो उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ हो जाते हैं. जिस कर्म से कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था न प्राप्त हो सके, उससे बचना चाहिए. मनुष्य को विश्वास होना चाहिए कि कृष्ण समस्त परिस्थितियों में उसकी सभी कठिनाइयों से रक्षा करेंगे. इसके विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं कि जीवन-निर्वाह कैसे होगा.
कृष्ण इसको संभालेंगे. मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आप को निस्सहाय माने और अपने जीवन की प्रगति के लिए कृष्ण को ही अवलंब समझे. पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भगवद्भक्ति में प्रवृत्त होते ही वह मनुष्य प्रकृति के समस्त कल्मष से मुक्त हो जाता है. धर्म की विविध विधियां हैं और ज्ञान, ध्यानयोग आदि जैसे शुद्ध करनेवाले अनुष्ठान हैं, लेकिन जो मनुष्य कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुष्ठानों के पालन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है.
कृष्ण की शरण में जाने मात्र से वह अपना व्यर्थ समय गंवाने से बच जायेगा. इस प्रकार वह तुरंत सारी उन्नति कर सकता है और समस्त पापों से मुक्त हो सकता है. श्रीकृष्ण की सुंदर छवि के प्रति मनुष्य को आकृष्ट होना चाहिए. उनका नाम कृष्ण इसीलिए पड़ा, क्योंकि वे सर्वाकर्षक थे. जो व्यक्ति कृष्ण की सुंदर, सर्वशक्तिमान छवि से आकृष्ट होता है, वह भाग्यशाली है.
अध्यात्मवादी कई प्रकार के होते हैं- कुछ निर्गुण ब्रह्म के प्रति आकृष्ट होते हैं, कुछ परमात्मा के प्रति; लेकिन जो भगवान के साकार रूप के प्रति आकृष्ट होता है, वह सर्वोच्च योगी है. दूसरे शब्दों में, अनन्यभाव से कृष्ण की भक्ति गृह्यतम ज्ञान है और संपूर्ण गीता का यही सार है. कर्मयोगी, दार्शनिक, योगी तथा भक्त सभी अध्यात्मवादी कहलाते हैं, लेकिन इनमें से शुद्धभक्त ही सर्वश्रेष्ठ हैं. मनुष्य को यह चिंता होती है कि वह किस प्रकार सारे धर्मों को त्यागे और एकमात्र कृष्ण की शरण में जाये, लेकिन ऐसी चिंता व्यर्थ है.
– स्वामी प्रभुपाद