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भाषा से समझना

सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइये एवं उन्नत कीजिए, तभी एक राष्ट्र का निर्माण हो सकता है. यथार्थ राष्ट्र जो झाेंपड़ियों में निवास करता है, अपना पौरुष विस्मृत कर बैठा है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है. हिंदू, मुसलमान या ईसाई के पैरों से रौंदे वे लोग यह समझ बैठे हैं कि जिस किसी के पास पैसा हो, […]

सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइये एवं उन्नत कीजिए, तभी एक राष्ट्र का निर्माण हो सकता है. यथार्थ राष्ट्र जो झाेंपड़ियों में निवास करता है, अपना पौरुष विस्मृत कर बैठा है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है. हिंदू, मुसलमान या ईसाई के पैरों से रौंदे वे लोग यह समझ बैठे हैं कि जिस किसी के पास पैसा हो, वे उसी के पैरों से कुचले जाने के लिए ही हुए हैं.

उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व प्रदान करना होगा, उन्हें शिक्षित बनाना होगा. किसी राष्ट्र में यदि तुम्हें कुछ कार्य करना है, तो उसी राष्ट्र की विधियों को अपनाना होगा, हर आदमी को उसी की भाषा में समझाना होगा. अगर तुम्हें अमेरिका या इंग्लैंड में धर्म का उपदेश देना है, तो तुम्हें राजनीतिक विधियों के माध्यम से काम करना होगा, संस्थाएं बनानी होंगी, समितियां गढ़नी होंगी, वोट देने की व्यवस्था करनी होगी, बैलेट के डिब्बे बनाने होंगे, सभापति चुनना होगा इत्यादि, क्योंकि पाश्चात्य जातियों की यही विधि है और यही भाषा है. पर यहां, भारत में यदि तुम्हें राजनीति की बात कहनी है, तो धर्म की भाषा को माध्यम बनाना होगा.

तुमको इस प्रकार कुछ कहना होगा- ‘जो आदमी प्रतिदिन सवेरे अपना घर साफ करता है, उसे इतना पुण्य प्राप्त होता है, उसे मरने पर स्वर्ग मिलता है, वह भगवान में लीन हो जाता है.’ जब तक तुम इस प्रकार उनसे न को, वे तुम्हारी बात समझेंगे ही नहीं. यह प्रश्न केवल भाषा का है. बात जो की जाती है, वह तो एक ही है. हर जाति के साथ यही बात है. परंतु, प्रत्येक जाति के हृदय को स्पर्श करने के लिए तुम्हें उसकी भाषा में बोलना पड़ेगा- और यह ठीक भी है. हमें इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए. मेरे विचार से हमारे राष्ट्रीय पतन का वास्तविक कारण यह है कि हम दूसरे राष्ट्रों से नहीं मिलते-जुलते, यही अकेला और एकमात्र कारण है.

हमें कभी दूसरों के अनुभवों के साथ अपने अनुभवों के मिलान करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ. हम कूपमंडूक- कुएं के मेढक बने रहे. मैं केवल चाहता हूं कि हमारा समाज अच्छा बने. हमें झूठ से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुंचना नहीं है, पर सत्य से उच्चतर सत्य तक, अच्छे से अधिकतर अच्छे तक- यही नहीं, अधिकतम अच्छे तक पहुंचना है.

– स्वामी विवेकानंद

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