परमात्मा तो उसी का नाम है, जिसकी कोई परिभाषा नहीं है. परमात्मा अर्थात अपरिभाष्य. इसलिए परमात्मा की परिभाषा पूछोगे, तो उलझन में पड़ोगे. जो भी परिभाषा बनाओगे, वही गलत होगी. और कोई परिभाषा पकड़ ली, तो परमात्मा को जानने से सदा के लिए वंचित रह जाओगे.
परमात्मा समग्रता का नाम है. और सब चीजों की परिभाषा हो सकती है, समग्रता के संदर्भ में, पर समग्रता की परिभाषा किसके संदर्भ में होगी? जैसे हम कह सकते हैं कि तुम च्वांगत्सु के छप्पर के नीचे बैठे हो, च्वांगत्सु का छप्पर वृक्षों की छाया में है, वृक्ष चांद-तारों की छाया में हैं, चांद-तारे आकाश के नीचे हैं, फिर आकाश. फिर आकाश के ऊपर कुछ भी नहीं. सब आकाश में है, तो आकाश किस में होगा? यह तो बात बनेगी ही नहीं.
जब सब आकाश में है, तो अब आकाश किसी में नहीं हो सकता. इसलिए आकाश तो होगा, लेकिन किसी में नहीं होगा. ऐसे ही परमात्मा है. परमात्मा का अर्थ है, जिसमें सब हैं, जिसमें बाहर का आकाश भी है और भीतर का आकाश भी है, जिसमें पदार्थ भी है और चैतन्य भी; जिसमें जीवन भी है और मृत्यु भी, दिन और रात, सुख और दुख, पतझड़ और बसंत आदि इसमें सब समाहित है.
परमात्मा सारे अस्तित्व का संदर्भ है, उसकी पृष्ठभूमि है. ऐसा नहीं है कि परमात्मा की परिभाषा न की गयी हों; आदमी ने परिभाषाएं की हैं, लेकिन सब परिभाषाएं गलत हैं. और अगर तुमने तय किया कि पहले परिभाषा करेंगे, फिर यात्रा करेंगे, तो न तो परिभाषा होगी, न कभी यात्रा होगी. परिभाषा तो छोटी-छोटी चीजों की हो सकती है. शब्द में कुछ भी कहोगे, सीमित हो जायेगा; जैसे ही कहोगे वैसे ही सीमित हो जायेगा. लाओत्सु जीवन-भर चुप रहा, नहीं बोला.
सब चीजों के संबंध में बोलता था, लेकिन सत्य के संबंध में चुप रह जाता था. और अंत में जब बहुत उस पर आग्रह डाला गया कि जीवन से विदा लेते क्षण कुछ तो सूचना दे जाओ, तो उसने जो पहला ही वचन लिखा वह था: सत्य बोला कि झूठ हो जाता है. कोई बोला गया सत्य सत्य नहीं होता. कारण? सत्य का अनुभव तो होता है निशब्द में, शून्य में, और जब तुम बोलते हो तो शून्य को समाना पड़ता है छोटे शब्दों में.
– आचार्य रजनीश ओशो