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भ्रष्ट करती है महत्वाकांक्षा
जब तक भी कुछ हासिल करने की इच्छा है, तब तक वहां पर क्षोभ, गुस्सा, शोक, भय होगा. अमीर होने की आकांक्षा, यह या वह होने की महत्वाकांक्षा तभी गिर सकती है, जब हम इस शब्द में निहित सड़ांध या महत्वाकांक्षा की भ्रष्ट प्रकृति को समझ लें. उन क्षणों में जबकि हम देख-समझ लेते हैं […]
जब तक भी कुछ हासिल करने की इच्छा है, तब तक वहां पर क्षोभ, गुस्सा, शोक, भय होगा. अमीर होने की आकांक्षा, यह या वह होने की महत्वाकांक्षा तभी गिर सकती है, जब हम इस शब्द में निहित सड़ांध या महत्वाकांक्षा की भ्रष्ट प्रकृति को समझ लें.
उन क्षणों में जबकि हम देख-समझ लेते हैं कि ताकत, सत्ता हासिल करने की इच्छा, चाहे वह किसी भी रूप में हो, चाहे वह प्रधानमंत्री बन जाने की हो या जज या कोई पुजारी या धर्मगुरु- हमारी किसी भी प्रकार की शक्ति अर्जित करने की इच्छा आधारभूत रूप से पैशाचकीय या पाप है. लेकिन हम नहीं देख पाते कि महत्वाकांक्षा भ्रष्ट करती है. इसके विपरीत हम कहते हैं कि हम शक्ति को भले काम में लगायेंगे, जो निहायत ही बेवकूफाना वक्तव्य है.
किसी भी गलत चीज से अंत में कोई सही चीज हासिल नहीं की जा सकती. यदि माध्यम या साधन गलत हैं, तो उनका अंजाम या परिणाम भी गलत ही होंगे. यदि हम सभी महत्वाकांक्षाओं के संपूर्ण आशय को, उनके परिणामों, उसके परिणामों के साथ ही मिलनेवाले एैच्छिक-अनैच्छिक परिणामों सहित नहीं जानते-समझते हैं और अन्य इच्छाओं के केवल दमन का प्रयास करते हैं, तो इस बात का कुछ भी अर्थ नहीं है.
– जे कृष्णमूर्ति
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