कोई दुख है, इसका मतलब है कि हमारे मौलिक वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त भी, एक इच्छा है और हम उसे पूरा करना चाह रहे हैं.जब वह पूरी नहीं होती तब दुख होता है. हम अपनी वास्तविकता से इतर विचारों से एक कृत्रिम व्यक्तित्व या आदर्श या लक्ष्य गढ़ते हैं, जो कि असलीयत में अहं होता है.
इस लक्ष्य की राह पर चलने से ही दुख होता है. अपने मूल स्वरूप, वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त खुद को किसी भी अन्य कृत्रिम रूप में जानने, पहचानने, उसके बारे में विचार करने में ही दुख का बीज छिपा है.
जब हमारे विचार, अपने बारे में कोई कृत्रिम छवि गढ़ते हैं, तो हम दुख का बीज बोते हैं. जब हम अपनी छवि को पालते-पोसते हैं, तो दुख को पालते-पोसते हैं.
अपनी चेतना के इस आयाम से पार होने के लिए हम क्या कर सकते हैं? आत्म विकास, अहं का विकास करने, आदर्श, लक्ष्य बना कर चलने, दुनिया के हिसाब से चलने की कोशिश में हम दुख से निजात नहीं पा सकते.
इससे तो दुख मिलेगा ही. हम जैसे कुदरती हैं, मौलिक रूप से हैं, वैसे ही रहें. किसी चीज को कल्पना, विचार, सिद्धांत या शाब्दिक रूप से समझने की बजाय, उसका साक्षात अवलोकन करें, तो ही उसका यथार्थ समझ आ सकता है.
यदि कोई दुख से मुक्त होना चाहता है, तो उसे अहं को बनानेवाली संपूर्ण प्रक्रिया से वाकिफ होना होगा, इस अहं निर्माण की प्रक्रिया पर रोक लगानी होगी.
जे कृष्णमूर्ति