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अज्ञान का आवरण

जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने पुत्र के लिए पिता, पत्नी के लिए पति, रेल में यात्र करने पर पैसेंजर, उपासना करने पर भक्त, मांग कर खाने पर भिखारी आदि कहलाता है, ये उपाधियां हैं जिससे उसको विभिन्न नाम दे दिये हैं, किंतु वास्तव में वह व्यक्ति तो एक ही है, उसी प्रकार लेखक, कलाकार, इंजीनियर, […]

जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने पुत्र के लिए पिता, पत्नी के लिए पति, रेल में यात्र करने पर पैसेंजर, उपासना करने पर भक्त, मांग कर खाने पर भिखारी आदि कहलाता है, ये उपाधियां हैं जिससे उसको विभिन्न नाम दे दिये हैं, किंतु वास्तव में वह व्यक्ति तो एक ही है, उसी प्रकार लेखक, कलाकार, इंजीनियर, डॉक्टर, कलेक्टर आदि उसकी उपाधियां मात्र हैं, जो उसकी पहचान के लिए दिये जाते हैं, अन्यथा मूल रूप में वह एक मनुष्य ही है.
इसी प्रकार माया की उपाधि के कारण उसे ‘ईश्वर’ कहा जाता है. वह इसी मायाशक्ति से सृष्टि की रचना करता है. वह इस माया का अधिपति व स्वामी है जो उसी के संकल्प के अनुसार, उसी के नियम व अनुशासन में रह कर कार्य करती है. इसलिए ईश्वर को सर्वेसर्वा माना जाता है. इसी प्रकार ब्रह्म की वही चेतना शक्ति शरीर में ‘आत्मा’ कहलाती है.
शरीर से आबद्ध होने के कारण ही उसे ‘आत्मा’ कह दिया जाता है. जिस प्रकार समुद्र के जल और कुएं के जल में कोई अंतर नहीं है, घटाकाश और महाकाश में कोई अंतर नहीं है, उसी प्रकार ब्रह्म की वही चेतनाशक्ति शरीर में आत्मा है. यह आत्म-चेतना जब माया-शक्ति रूपी अज्ञान से आवृत्त होती है, तो वह ईश्वर और आत्मा में भेद करती है तथा अपने को जीव कहने लगती है. जब इस अज्ञान का आवरण हट जाता है, तभी अनुभव होता है कि आत्मा, ईश्वर और ब्रह्म एक ही चेतनतत्व है.
आदि शंकराचार्य

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