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कुर्सी के लिए लगी थी इमरजेंसी

यह बात प्रामाणिक नहीं है कि तब अराजकता की स्थिति थी. जो निष्कर्ष अब सिद्ध हो चुका है, वह यह है कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ना नहीं चाहती थीं.

राम बहादुर राय, वरिष्ठ पत्रकार

delhi@prabhatkhabar.in

आपातकाल के 45 साल हो चुके हैं, पर उससे जुड़ी कई बातें स्थायी महत्व की हैं. पहला सवाल यह कि- इमरजे‍ंसी क्यों लगी, लोकतंत्र का गला क्यों घोंटा गया, क्यों संविधान का दो-तिहाई हिस्सा बदल दिया गया? दुनिया के किसी भी संविधान की प्रस्तावना नहीं बदली गयी है. अमेरिका का संविधान सबसे पुराना है. उससे लेकर हाल में बने अफ्रीकी देशों के संविधान के संदर्भ में ऐसा एक उदाहरण भी हमें नहीं मिलता है. क्या आपातकाल लागू होने का कारण जयप्रकाश नारायण का आंदोलन था? क्या इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा इस आंदोलन के बारे में जारी श्वेत पत्र की बातें सही थीं?

ये कुछ अहम सवाल हैं. इतिहासकार बिपिन चंद्र ने अपनी किताब में यह बताने की कोशिश की कि इमरजेंसी के लिए जिम्मेदार लोकनायक जयप्रकाश नारायण थे. इस किताब के प्रकाशन के बाद मैंने एक लंबी टिप्पणी की थी क्योंकि उस आंदोलन का एक सिपाही होने, उसका एक छात्र होने के नाते मैंने उस आंदोलन को बहुत करीब से देखा था. उस आपातकाल का मैं एक भुक्तभोगी भी था. आंदोलन के बाद उसे मुड़कर भी हमलोग देख रहे थे.

अब तो शाह आयोग की रिपोर्ट भी हमारे सामने है. प्रशांत भूषण ने भी एक किताब लिखी है, जो उस मुकदमे के बारे में है, जिससे पूरा प्रकरण जुड़ा हुआ है. बिशन नारायण टंडन 11 सालों तक प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव रहे थे और वे रोजाना डायरी लिखते थे. इन किताबों और दस्तावेजों से यह निष्कर्ष निकलता है कि अगर जगमोहन लाल सिन्हा का फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ न जाता, तो इमरजेंसी नहीं लगती. श्रीमती गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए तानाशाही देश पर थोपी, लाखों लोगों को जेल में डाला, बड़ी संख्या में लोग जेलों में मरे और बहुत से परिवार बर्बाद हुए.

इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी देश पर शासन नहीं कर रही थीं, बल्कि उनके पुत्र और उनके इर्द-गिर्द के लोग शासन कर रहे थे. जो लोग इस समय नासमझी में यह कहते हैं कि मौजूदा सरकार ने इमरजेंसी जैसी हालत पैदा कर दी है, तो उनको पता ही नहीं है कि इमरजेंसी होती कैसी है. अगर उन्हें समुचित जानकारी होती, तो वे ऐसा नासमझी का बयान नहीं देते. उस समय कांग्रेस के सांसद-विधायक और कार्यकर्ता पुलिस के एजेंट की तरह व्यवहार कर रहे थे.

बनारस में मेरी गिरफ्तारी स्थानीय सांसद सुधाकर पांडे की जासूसी से हुई थी. यह जनप्रतिनिधि का काम तो नहीं था. शाह कमीशन को दिये अपने बयान में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और इंदिरा गांधी के नजदीकी सिद्धार्थ शंकर रे ने कहा था कि 25 जून, 1975 को जब उन्हें साथ लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के पास जा रही थीं, तो उन्होंने रास्ते में पूछा था कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाये बिना इमरजेंसी कैसे लगायी जा सकती है.

इससे एक दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने इंदिरा गांधी के खिलाफ आये फैसले पर रोक तो लगा दी थी, लेकिन यह भी आदेश दिया था कि उनकी लोकसभा की सदस्यता बहाल नहीं हो सकती, हालांकि बतौर प्रधानमंत्री संसद की कार्यवाही में शामिल होने पर रोक नहीं लगायी थी. अगर न्यायाधीश ने जगमोहन लाल सिन्हा के पूरे आदेश को रोक दिया होता, तो शायद इमरजेंसी की जरूरत नहीं पड़ती.

कुछ लोगों का कहना है कि इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र बचाने और देश को अशांति व अराजकता से बचाने के लिए ऐसा कदम उठाया था. ये गलत बात है क्योंकि इमरजेंसी के बाद जेपी आंदोलन की वजह से कहीं कोई ऐसी घटना या कोई उपद्रव नहीं हुआ, जैसा अगस्त, 1942 में कांग्रेस के पूरे नेतृत्व के गिरफ्तार होने के बाद पूरे देश में हुआ था. तो यह बात प्रामाणिक नहीं है कि अराजकता की स्थिति थी. कोई पुलिस या सैन्य विद्रोह भी नहीं हुआ, जिसका अंदेशा इंदिरा गांधी को सपने में हुआ था.

जो निष्कर्ष अब सिद्ध हो चुका है, वह यह है कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ना नहीं चाहती थीं. अगर वे लोकतांत्रिक होतीं, तो जगजीवन राम या कांग्रेस के किसी वरिष्ठ नेता का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करतीं और बाद में जीतकर वापस उस पद पर आ जातीं. पर उन्हें डर था कि जिस जुगाड़ से वे प्रधानमंत्री बनी हैं, वह जुगाड़ टूट जायेगा और उनके लिए रास्ता बंद हो जायेगा. इमरजेंसी के उन्नीस महीने के दौर के तीन हिस्से हैं. पहला हिस्सा चार-पांच महीने का है, जो सन्नाटे का है. पूरा देश हतप्रभ था और सरकार इमरजेंसी की उपलब्धियों का प्रोपेगैंडा कर रही थी.

इस सदमे से उबरने में देश को पांच-छह महीने लग गये. उसके बाद देश के स्तर पर और वैश्विक स्तर पर विरोध का दौर आया. साल 1976 के अगस्त तक विरोध चरम पर पहुंच चुका था. जिस भी देश में भारतीय थे, वे उन देशों की सरकारों पर दबाव बनाने लगे कि इंदिरा गांधी की क्रूरता और तानाशाही को रोका जाये. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मसले को ले जाने में डॉक्टर मकरंद देसाई और सुब्रमण्यम स्वामी की बड़ी भूमिका रही थी. और भी कई लोगों ने इसमें योगदान दिया था. तीसरे चरण में सरकार के भीतर और बाहर से जल्दी चुनाव कराने की रणनीति और कूटनीति, एक स्तर पर षड्यंत्र रचने, का दौर है.

इंदिरा गांधी को सलाह दी जा रही थी कि अगर आप चुनाव करायेंगी, तो आपको भारी बहुमत मिलेगा. इसमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो उनके करीबी थे, पर वे विपक्ष के निकट या उससे जुड़े हुए भी थे. चुनाव को लेकर विपक्ष की चिंता एक तो इमरजेंसी को लेकर थी और दूसरी चिंता संसाधनों की कमी थी. इसी बीच जगजीवन राम समेत अनेक बड़े कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने से हवा का रुख बदलता चला गया. विपक्षी नेताओं की सभाओं में भारी भीड़ होती थी और जनता तन-मन-धन से साथ दे रही थी. फिर जो हुआ, वह इतिहास है.

यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि अब इस देश में दुबारा इमरजेंसी नहीं लग सकती है. मौजूदा सरकार और आगामी सरकारों को इमरजेंसी के दौरान संविधान में हुए व्यापक बदलावों को हटाने की कोशिश करनी चाहिए. प्रस्तावना में सेकुलरिज्म और सोशलिज्म शब्दों को जोड़ना संविधान निर्माताओं का अपमान है. युवा पीढ़ी को भी संविधान के मूल रूप को स्थापित करने के लिए दबाव डालना चाहिए.

(बातचीत पर आधारित)

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