Artificial Intelligence : मानव इतिहास में जब-जब आविष्कार हुए हैं, तब-तब यह बहस छिड़ी है कि वे आपदा बनेंगे या अवसर. पहिये के आविष्कार से घबराये मजदूरों को लगा था कि इससे उनके पेट पर लात पड़ेगी. भाप के इंजन से पशुगाड़ी वालों को भय लगा और मशीनी लूम से बुनकरों को. बिजली, ट्रांजिस्टर और कंप्यूटरों के आविष्कारों के बाद भी इसी तरह की बहस छिड़ी. इसी तरह खेती के मशीनीकरण ने किसानों और मजदूरों को गहरी चिंता में डाला था.
विकसित देशों में आज लगभग पांच प्रतिशत लोग ही खेती में काम करते हैं. दूसरे उद्योगों, व्यापार और सेवा क्षेत्रों के कामों में लग गये और पहले से बेहतर और संपन्न हैं. कृत्रिम मेधा या एआइ के विकास से बुद्धिमान बनती मशीनों ने एक बार फिर वही सवाल खड़ा कर दिया है. क्या मशीनें आम इंसान की रोजी-रोटी छीनने जा रही हैं? खोजी प्रतिभा से कंप्यूटरों को जीवन का अविभाज्य अंग बना देने वाले माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स के इस कथन ने सबको चौंका दिया है कि कृत्रिम मेधा के चलते एक दशक के भीतर ही अधिकतर कामों के लिए इंसानों की जरूरत नहीं रह जाएगी.
कृत्रिम मेधा की संभावनाओं को बिल गेट्स ने आज से दस साल पहले ही भांप लिया था और एक चर्चा के दौरान कहा था कि इसका विकास दुनिया में सबसे बड़ा कायापलट करने वाला साबित होगा. बिल गेट्स की भविष्यवाणी की तसदीक करते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि एआइ के विकास से दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत नौकरियां प्रभावित हो सकती हैं. लेकिन बिल गेट्स का कहना है कि नयी तकनीकों से जहां पहले रोजगार जाने का भय फैलता है, वहीं आगे चलकर नये-नये अवसरों के द्वार भी खुलते हैं.
मशीनीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से जहां दफ्तरों और कारखानों के बहुत से रोजगार गये, वहीं प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र में हुए विस्तार से नये और अच्छे रोजगारों के अवसर भी खुले. शिक्षण, निदान, निर्माण, ढुलाई, डिजाइन, कोडिंग, संचार, रक्षा, निगरानी, साइबर सुरक्षा और भोजन उत्पादन जैसे काम मशीनें करने लगेंगी. परंतु बायो-तकनीक, नियामन और निर्णय जैसे काम इंसानों के पास रहेंगे. एआइ के विकास का काम कितनी तेजी और प्रतिस्पर्धा के साथ हो रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि पिछले साल के आरंभ में जहां हम अमेरिका के चैट-जीपीटी, जैमिनाइ, कोपायलट और इस साल के आरंभ में चीन के डीपसीक और एर्नी जैसे डीप लर्निंग पीढ़ी के एआइ मॉडलों की बात कर रहे थे, वहीं अब अगली पीढ़ी के फाउंडेशन मॉडलों की बात होने लगी है.
दोनों में बुनियादी अंतर यह है कि डीप लर्निंग मॉडल पारंपरिक बिट पद्धति से ही करोड़ों बातें सीख कर उनका आकलन करते और जवाब देते हैं. जबकि फाउंडेशन मॉडल हमारे दिमाग की तरह बहुमुखी बिट सूचनाएं ले सकते हैं और उनका एक साथ आकलन कर सकते हैं. वे एक तरह से क्वांटम कंप्यूटिंग सिद्धांत पर काम करते हैं. कामयाब हो जाने पर फाउंडेशन और क्वांटम मॉडल ऊर्जा खपत और मॉडल के प्रशिक्षण पर आने वाले खर्च की चुनौतियों का हल कर देंगे.
सबसे बड़ी चुनौती सब देशों की सम्मति से इस कायापलट तकनीक के विकास की एक अंतरराष्ट्रीय आचार संहिता तैयार करने की है, जिसके बिना इससे जनसामान्य के हित नहीं साधे जा सकते और न ही उसे भावी खतरों से बचाया जा सकता है. पर जिस तरह अमेरिका ने एआइ तकनीक में अपना और अपनी कंपनियों का वर्चस्व कायम रखने के लिए दूसरे देशों पर इस तकनीक के और इसके लिए जरूरी अत्याधुनिक चिपों पर संरक्षणवादी रोक लगायी है, उससे किसी भी आचार संहिता पर सहमति और उसका पालन लगभग असंभव हो गया है.
जवाब में चीनी कंपनियों ने अपने एआइ मॉडलों के विकास को ओपन सोर्स कर दिया है, जिससे दुनिया की कोई भी कंपनी उनमें परिष्कार और परिवर्तन करके प्रयोग में ला सकती है. चीन का लक्ष्य एआइ के क्षेत्र में अमेरिका के प्रतिबंधों को नाकाम करना है. इसके लिए उसने जवाबी दीवार खड़ी करने की जगह अपने एआइ मॉडलों को सर्वसुलभ बना दिया है. चीन के डीपसीक और एर्नी जैसे एआई मॉडल अमेरिकी मॉडलों से सस्ते हैं और मुफ्त में उपलब्ध हैं. चीन इसमें सफल हुआ, तो अमेरिका की कई एआइ कंपनियों का दिवाला निकल सकता है. चीन का यह कदम इस कायापलट तकनीक में भारत के लिए अवसर के द्वार खोलता है.
चीन पिछले लगभग दो दशकों से अपने जीडीपी का करीब 2.5 फीसदी शोध और विकास पर खर्च करता आ रहा है. अमेरिका 3.4 फीसदी खर्च करता आया है, इसीलिए तीन दशकों से सूचना प्रौद्योगिकी में सबसे आगे था और एआइ में भी सबसे आगे है. भारत शोध और विकास पर जीडीपी का मात्र 0.64 फीसदी खर्च करता है, इसलिए 60 लाख से अधिक तकनीकी विशेषज्ञ होने के बावजूद एआइ की दौड़ में कहीं नहीं है. चीन ने अपने एआइ मॉडलों को ओपनसोर्स करने का जो जोखिम लिया है, वह भारत को पका-पकाया आधार दे सकता है. एआइ तकनीक उत्तरोत्तर विकास पर चलती है, इसलिए चीन के डीपसीक जैसे मॉडलों का अपने हिसाब से परिष्कार, प्रयोग और विकास किया जा सकता है. चीन के ही एक एआइ विशेषज्ञ का कहना है कि सवाल यह नहीं है कि कौन सबसे शक्तिशाली मॉडल सबसे पहले बना सकता है, बल्कि यह है कि कौन उसका असल कामों में सबसे बढ़िया प्रयोग कर सकता है. इस पहलू में चीन अमेरिका से भी आगे है, इसलिए पके-पकाये मॉडल मिलने पर भी भारत के लिए प्रतियोगिता आसान नहीं होगी.
जो सवाल पूरी दुनिया के लिए सबसे अहम है, उसे नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो डैरन असमोग्लू ने अपनी नयी पुस्तक में उठाया है. सवाल यह है कि आप उन्हें सलाहकार की भूमिका में चाहते हैं या स्वायत्त भूमिका में. सलाहकार की भूमिका में वे शिक्षक, डॉक्टर, बैंकर, प्रशासक, वैज्ञानिक, किसान, इंजीनियर, डिजाइनर और व्यापारी को हर पहलू का आकलन करके तार्किक सलाह देंगे. स्वायत्त एजेंट इंसान से पूछे बिना अपनी समझ से काम करेंगे, ठीक उसी तरह जैसे आजकल शेयर और मुद्रा बाजार में आप खरीद-बेच के सौदे लगाकर छोड़ देते हैं और कंप्यूटर प्रोग्राम बाजार के हिसाब से खरीद या बेच देता है. भारत के लिए सलाहकार एजेंट सही रहेंगे, जो लोगों की कुशलता व कार्यक्षमता बढ़ाएंगे. मगर भारत की बड़ी आबादी के लिए अभी ये सब सैद्धांतिक बातें हैं. जब तक शिक्षा और काम के हर स्तर पर एआइ का समावेश नहीं होता, उसका लाभ उठा पाना एक सपना ही है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)