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दलित प्रतिरोध के वैकल्पिक स्वर

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in इक्कीस मई की जानलेवा धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दलित युवा के आह्वान पर हजारों लोग सिर पर नीली टोपी पहने हुए बुलंद नारों के साथ प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे.नारों में उठे हाथ जातीय हिंसा और ब्राह्मणवाद के विरोध में […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
इक्कीस मई की जानलेवा धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दलित युवा के आह्वान पर हजारों लोग सिर पर नीली टोपी पहने हुए बुलंद नारों के साथ प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे.नारों में उठे हाथ जातीय हिंसा और ब्राह्मणवाद के विरोध में आवाज लगा रहे थे. कहीं कोई राजनीतिक दल का झंडा नहीं था और न ही कथित मुख्यधारा का कोई मीडिया समूह उनकी आवाज को प्रसारित करने के लिए उतावला था. सोशल मीडिया और सामाजिक सरोकार की ताकत सड़क पर दिख रही थी. इस आंदोलन ने न केवल सत्ताधारियों को, बल्कि उन राजनीतिक दलों को भी चौंका दिया, जो दलित हित की बात करते हैं.
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में सवर्णों के एक समूह द्वारा दलितों के पच्चीस से अधिक घर जलाये जाने के विरोध में यह प्रदर्शन हो रहा था. इस आंदोलन के संगठनकर्ता हैं चंद्रशेखर, जो हिंदू मिथकों के प्रतिरोध में खुद को ‘रावण’ कहते हैं. उन्होंने ‘द ग्रेट चमार’ के स्लोगन के साथ भीम सेना का गठन किया है. अब यह वैकल्पिक दलित आंदोलन के रूप में देखा जाने लगा है.
सहारनपुर में पांच मई को दलितों के घर जला देने का जो मामला प्रकाश में आया, वह लंबे समय से चले आ रहे दलितों के उत्पीड़न की ही एक कड़ी है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, हर घंटे औसतन दलितों के खिलाफ पांच से ज्यादा अपराध होते हैं. हम इस तरह की घटनाओं के कारणों को समझने की कोशिश करेंगे और उसी के संदर्भ में वैकल्पिक दलित आंदोलन पर विचार करेंगे.
संवैधानिक व्यवस्था के बाद भी दलितों के उत्पीड़न का दौर जारी है. यह ऐसा तथ्य है, जो संवैधानिक व्यवस्था और समाज व्यवस्था के फर्क को जाहिर करता है. सीधी बात यह है कि मनुस्मृति की व्यवस्था और संवैधानिक व्यवस्था में तीखी टकराहट है.
हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि आज भी हमारे समाज में मनुवादी व्यवस्था की मशीनरी संवैधानिक व्यवस्था की मशीनरी से ज्यादा ताकतवर है और उसके तंत्र ज्यादा फैले हुए हैं. इसलिए जब भी दलितों के उत्पीड़न का मामला आता है, वह वैधानिक प्रक्रिया और मीडिया में सहज स्वीकृत नहीं होता है. सहारनपुर में जब सवर्णों के एक समूह के द्वारा दलितों का गांव जला दिया गया, तो घटना के बाद प्रशासन आरोपियों पर कारवाई करने के बजाय प्रतिरोध में खड़ी भीम सेना के कार्यकर्ताओं को ही गिरफ्तार करने लगी और नक्सलियों के साथ उनके संबंध की झूठी कहानी भी गढ़ने लगी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है.
महाराष्ट्र के खैरलांजी में साल 2006 में जब दलितों की हत्या हुई थी, तब प्रतिरोध में खड़े दलितों के सांस्कृतिक संगठन कबीर कला मंच पर भी आरोप लगा कि उसका संबंध नक्सलियों से है. तब उसके सदस्यों को देश के लिए खतरा मान कर गिरफ्तार कर लिया गया था. यह दलित प्रतिरोध को दमित करने का मनुवादी प्रशासनिक तरीका है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त दलितों की अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन करता है. प्रतिरोधी शक्तियों को ‘नक्सली’ कह कर आरोपित करने के पीछे की मूल मंशा आंदोलन का सैन्य दमन करना होता है.
चूंकि दलित प्रतिरोध के केंद्र में सांस्कृतिक राजनीति है. जो सवर्णों का संस्कार है, उसे अब दलित स्वीकार नहीं करना चाहते. दलित समाज तमाम हिंदू धर्म की रूढ़ियों के विरुद्ध है. इस वजह से अब प्रतीकों की भी लड़ाई है. एक ओर दलित समाज अांबेडकर को अपना सच्चा उद्धारक मानता है, वहीं दूसरी ओर एक परंपरागत हिंदूवादी अांबेडकर से असहज महसूस करता है.
इसके आलावा इस तरह की हिंसा में सामंती भावना भी काम करती है. अभी तक दलितों को लेकर सवर्ण समाज में यह मानसिकता मौजूद है कि ‘जो दलित हमारे खेतों में, घरों में बेगारी करते थे, वही अब हमारी बराबरी करेंगे.’ पिछले वर्ष जब भाजपा सांसद तरुण विजय उत्तराखंड के एक मंदिर में दलितों को प्रवेश कराने के लिए एक सामाजिक गतिविधि में शामिल हुए थे, तो उन पर कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया था.
तब उन्होंने ऐसे तत्वों को देशद्रोही और आतंकी कहा था. लेकिन, भाजपा व आरएसएस खुद ही रेडिकल अांबेडकरवाद को स्वीकार नहीं करते हैं. जबकि इस तरह के सामाजिक मुद्दे को बिना रेशनल और रेडिकल हुए हल नहीं किया जा सकता है.
भीम सेना के नेतृत्व में फिर से दलित आंदोलन रेडिकल तरीके से सामने आया है. घटना के बाद दलितों ने हिंदू धर्म के देवी-देवताओं को घरों से निकाल कर नहर में बहा दिया. इससे पहले पिछले वर्ष गुजरात में जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में ऐसा ही रेडिकल दलित आंदोलन उभरा था.
दलितों ने मृत गायों को जिला मुख्यालय में फेंक कर प्रदर्शन किया था. इस आंदोलन में भी लाखों लोग सड़कों पर बिना किसी राजनीतिक सपोर्ट के स्वत: उतर आये थे. इस तरह के आंदोलन यह संकेत देते हैं कि दलित-पिछड़ों की राजनीति में भी विकल्प की तरह नया नेतृत्व उभर रहा है. जिग्नेश मेवानी हों या भीम सेना के चंद्रशेखर हों, दोनों युवाओं ने दलितों की वोट की राजनीति करनेवालों के सामने प्रतिरोध का वैकल्पिक उदाहरण प्रस्तुत किया है. वर्तमान में जो दलित राजनीतिक पार्टियां हैं, वे आरक्षण के मुद्दे के इर्द-गिर्द ही सिमट रही हैं.
दूसरे, ये पार्टियां भी सत्ता के लिए ‘वोट मैनेजमेंट’ पर ही ज्यादा फोकस करती हैं. इससे मूल सामाजिक मुद्दा पीछे रह जाता है. चंद्रशेखर का कहना है कि राजनीतिक एकता से ज्यादा जरूरी सामाजिक एकता है. उन्होंने यह भी कहा कि यदि किसी दलित की सरकार होती और दलितों का उत्पीड़न होता तो भी भीम सेना के आंदोलन का स्वरूप यही होता. चंद्रशेखर के आंदोलन का यही पक्ष उनका अपना है, और मौलिक है.
आज देश के हर कोने में दलित उत्पीड़न आम है. गांव-चौपालों से लेकर बड़े-बड़े आकादमिक संस्थानों तक. हर जगह प्रतिरोध भी है, लेकिन उन सबको एक सूत्र में बांधनेवाला और उसे बृहद राष्ट्रीय स्वरूप देनेवाला मंच नहीं है. मायावती और रामविलास पासवान जैसे दलित नेता आंदोलनों की ताप को बचा नहीं सके. ऐसे में चंद्रशेखर और जिग्नेश मेवानी जैसे युवा दलित बेहतर विकल्प की तरह हमारे सामने हैं.

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