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गरीब को मिले अच्छी-सस्ती दवा
राज बैरोलिया ट्रस्टी, दवाई दोस्त जो दवाएं ब्रांडेड रूप में बेची जाती हैं, वे मुख्यतः जेनरिक दवाएं ही होती हैं, जिन्हें डॉक्टरों द्वारा लिखे जाने के लिए फार्मा कंपनियों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है. उत्पादन की कम लागत के बावजूद ये महंगी दरों पर बेची जाती हैं, ताकि उनकी आय से डॉक्टरों को दिये जानेवाले […]
राज बैरोलिया
ट्रस्टी, दवाई दोस्त
जो दवाएं ब्रांडेड रूप में बेची जाती हैं, वे मुख्यतः जेनरिक दवाएं ही होती हैं, जिन्हें डॉक्टरों द्वारा लिखे जाने के लिए फार्मा कंपनियों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है. उत्पादन की कम लागत के बावजूद ये महंगी दरों पर बेची जाती हैं, ताकि उनकी आय से डॉक्टरों को दिये जानेवाले प्रोत्साहन की लागत पूरी की जा सके. इस लागत को और कोई नहीं, बल्कि स्वयं आप वहन करते हैं. इसके बाद जेनरिक दवाएं आती हैं. इनका भी एक ब्रांड नाम होता है, पर उन्हें बढ़ावा नहीं दिया जाता, इसलिए ये दवाएं काफी सस्ती होनी चाहिए.
मैंने जिन 150 दवाओं की कीमतों के ऐसे औसत अंतर देखे, वे 600 प्रतिशत से भी ऊपर थे. वहीं कुछ डॉक्टर या कारोबारी अपने खुद के ब्रांडों की बिक्री अत्यंत ऊंची कीमतों पर किया करते हैं.
एक ही दवा 600 विभिन्न नामों से विभिन्न कीमतों पर बेची जा रही हो, यह संभव है. इतने सारे ब्रांडों के बाद भी, उपभोक्ता के स्तर पर उनमें कोई भी स्पर्धा नहीं है, क्योंकि अब तक आपके पास कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं. भारत में दवाओं के विनिर्माताओं की तादाद 10,000 से ऊपर है, जबकि यहां 1,00,000 से अधिक सूचीबद्ध ब्रांड हैं. अमेरिका में 2,000 से भी कम ब्रांड हैं. सिद्धांततः, सारी किस्मों की दवाएं एक ही जांच प्रक्रिया से गुजारी जाती हैं.
मगर व्यवहार में, यह भारत है, जहां सारी बातें सिर्फ सिद्धांत रूप तक सीमित रह जाती हैं. कोई भी विनियामक दवाओं के सभी बैचों की जांच नहीं करता. नकली दवाओं के लिए किये जानेवाले जुर्माने की रकम कागज पर बहुत ही ऊंची है. झारखंड में गैरसरकारी दुकानों से हासिल 1.7 प्रतिशत दवाएं ‘घटिया’ स्तर की पायी गयीं, जबकि सरकारी दुकानों से प्राप्त ऐसी दवाएं 10.58 फीसदी थीं. भारत में गुणवत्ता अथवा ‘प्रक्रियाओं’ के लिए कोई सम्मान नहीं है. ‘चलेगा,’ ‘हो जायेगा’ और ‘चलता है’ यहां पसंदीदा अभिव्यक्तियां हैं.
आखिर घटिया दवाएं बनाता कौन है? प्रायः, अनजान और अनसुनी कंपनियों में ही इनका निर्माण होता है. कुछ विख्यात कंपनियों में एबट, अल्केम, कैडिला, सिप्ला, जीएसके, सनोफी, सन, टोरेंट, वोकहार्ट तथा जाइडस आदि शामिल हैं. इन बड़ी कंपनियों की दवाएं खरीदने पर भी गुणवत्ता की निश्चितता तो नहीं, पर उसकी अच्छी संभावना जरूर है. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई दवा ब्रांडेड है या जेनरिक. मेरी सलाह है कि आप केवल विख्यात कंपनियों की दवाएं ही खरीदें.
लालच की कोई सीमा नहीं होती. ऊंची कीमतों के माध्यम से आपका दोहन करने के बाद भी भूखे रह कर वे आपको बेजरूरत की चीजें खरीदने को भी मजबूर करती हैं- बेजरूरत इसलिए कि आपके नुस्खे में लिखी कई चीजें तो ‘दवा’ होती ही नहीं. रांची में लिखे जा रहे एक औसत नुस्खे में अमूमन आठ चीजें होती हैं. डॉक्टरों का कहना है कि प्रायः चौथी एवं आठवीं चीज अनावश्यक होती हैं. वे सैकड़ों रुपये मूल्य के अत्यंत कीमती विटामिन होते हैं. जीएसके एवं बेयर जैसी कंपनियों के बहुत से ऐसे विटामिन हैं, जिनकी कीमत एक रुपये प्रति गोली होती है. पर, केवल सही डॉक्टर ही उन्हें लिखा करते हैं.
भारत में सबसे अधिक बेची जानेवाली 300 दवाओं के एक विश्लेषण से पता चला कि जरूरी दवाओं की सरकारी सूची में उनमें से केवल 150 दवाएं ही शामिल हैं. यानी मौजूदा व्यवस्था ध्वस्त है और इसे ठीक करने की जरूरत है. मोदीजी ने नुस्खे सही करने से शुरुआत की है. ऐसी व्यवस्था हो कि मरीज किसी दवा का नाम और बैच नंबर टाइप कर यह जानकारी तुरंत पा सके कि वह दवा अनुमतिप्राप्त है तथा उस बैच की जांच की जा चुकी है. यह जिम्मेवारी एक स्वतंत्र ‘गुणवत्ता एजेंसी’ को सौंपी जानी चाहिए, जिसके खर्चे दवा कंपनियां उठायें.
भारत ‘प्रस्तावों, आवेदनों, और अधिक प्रस्तावों, मगर कोई निर्णय नहीं’ का देश है. यहां कुछ करने पर तो सजा है, लेकिन कुछ न करने पर कोई सजा नहीं है. दो वर्षों एवं भारत में दर्जनों दौरों के बाद भी मेरे पास दिखाने को केवल 12 ही दुकानें हैं, न कि 100 दुकानों का वह लक्ष्य, जिसे मैंने लोगों के लिए सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने हेतु तय किया था. झारखंड के लोग तथा अधिकारी नेकनीयत हैं.
पर, जब लोगों की जिंदगी दांव पर लगी हो, तो क्या नेकनीयत होना ही काफी होना चाहिए? मुख्यमंत्री की कलम की एक जुंबिश सस्ती दवाओं को उन सबकी पहुंच के भीतर ला सकती है, जो राज्य के प्रमुख अस्पतालों में आते हैं.
ये पंक्तियां लिखते वक्त मैं सुंदर सागर तट पर बनी एक कुटिया के बरामदे में बैठा हूं. शीतल मंद बयार बह रही है. समुद्री लहरें मधुर संगीत सा सुना रही हैं. और तभी मेरे मन की आंखें एक गरीब मरीज के परेशान मुखड़े पर आयी उस राहत पर रुक जाती हैं, जो ‘दवाई दोस्त रिम्स’ पर पहुंच कर उसे महसूस होती है. मैं जान जाता हूं कि मैं जो कुछ कर रहा हूं, दुरुस्त कर रहा हूं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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