दुखद यह नहीं है कि पुरु ष ने स्त्री को वस्तु माना है, बल्कि यह है कि जिन नायिकाओं का देश अनुसरण करता है, वे भी कलाकारी के नाम पर स्त्री को भोग्या बताने पर तुली हैं. हैरत यह नहीं है कि पुरु षों का चारित्रिक पतन हुआ है, बल्कि यह है कि युवतियों का एक बड़ा वर्ग खुद लुभाने की कोशिशें करता है.
यह चिंतनीय है कि स्त्री को सुरक्षा हासिल नहीं है, पर यह भी कम नहीं कि कई स्त्रियां अपने असंस्कृत पहनावे को आजादी से जोड़ देती हैं. जब द्रौपदी को दु:शासनों की भीड़ नजर आती है, तो उसे भी सतर्क तो रहना चाहिए. अजीब यह नहीं कि पुरु ष की मानसिकता को बदलना नामुमकिन सा हो गया है, अजीब यह है कि महिलाओं को भी उनके हितों के लिए सलाह देना दुस्साहस हो गया है. कई बार महिलाओं की असुरक्षा के लिए नारी की अपनी इच्छाशक्ति पर भी संदेह होता है.
आलोक रंजन, हजारीबाग