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जब विकास का सागर छलकेगा!

बड़ी अजीब बात दिख रही है आजकल. हर कोई विकास के पक्ष में खड़ा है. कांग्रेस हो या भाजपा, सब अपने-अपने तरीके से विकास के नारे लगा रहे हैं. कांग्रेस के विज्ञापन अपनी तरह से विकास का बखान कर रहे हैं, तो नरेंद्र मोदी पूरे देश को गुजरात बना देने का दावा कर रहे हैं. […]

बड़ी अजीब बात दिख रही है आजकल. हर कोई विकास के पक्ष में खड़ा है. कांग्रेस हो या भाजपा, सब अपने-अपने तरीके से विकास के नारे लगा रहे हैं. कांग्रेस के विज्ञापन अपनी तरह से विकास का बखान कर रहे हैं, तो नरेंद्र मोदी पूरे देश को गुजरात बना देने का दावा कर रहे हैं. लोगों से बात करिये, तो हर कोई विकास के पक्ष में खड़ा दिखायी देगा, चाहे वह भाजपा का समर्थक हो, कांग्रेस का या किसी और पार्टी का.सब विकास के मॉडल पर बहस शुरू कर देंगे. लेकिन 1991 में जब बाजार अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई थी, तो कांग्रेस को छोड़ सभी दल इसके खिलाफ थे.

बाद में लगभग सभी दलों को दिल्ली की सत्ता में हिस्सा मिला, तो सबमें यही होड़ रही कि बाजार आधारित विकास के मॉडल को कौन कितनी तेजी से लागू करता है. जो भी दल सत्ता में होता है वह वालमार्ट के लिए बाजार खोलने का श्रेय लेने की कोशिश में लग जाता है और सत्ता से बाहर के दल इस कोशिश को बाधित करने में. इसी तरह नूराकुश्ती करते हुए वे यह दिखाने के कोशिश करते रहते हैं कि उनके विकास के मॉडल अलग-अलग हैं. लेकिन कोई यह नहीं बताता कि उनके विकास का मॉडल हमारे जीवन की गुणवत्ता किस तरह बढ़ायेगा.

मैं अगर 1991 के बाद आये बदलावों पर नजर डालता हूं, तो मुझे नहीं लगता कि हमारे जीवन की गुणवत्ता बढ़ी है. हमारे जीवन यानी भारतीयों के जीवन की सामूहिक गुणवत्ता. 1991 से पहले तमाम ब्रांड बाजार में नहीं थे, इतने तरह की कारें नहीं थीं, कंप्यूटर आम जीवन की जरूरत नहीं थी, चिट्ठियां लिख कर संवाद करते थे, मोबाइल, एलसीडी, एलक्ष्डी, जेल पेन आदि नहीं थे और न इतने मनोरंजन के साधन. एसी, फोन, ओवन, वाशिंग मशीन आदि लग्जरी मानी जाती थीं. आमदनी भी कम और ईमानदारी से ज्यादा पैसे कमाने के मौके भी कम थे. लेकिन परिवार की संस्था मजबूत थी जो सामाजिक सुरक्षा का काम करती थी. साधारण घर में भी आंगन होता था चाहे जितना छोटा हो.

बीते 20-22 साल में बहुत सी चीजें आ गयीं, लेकिन परिवार सिमटता गया, आंगन गायब हो गया. परिवार के लिए समय कम हो गया और पैसे के लिए ज्यादा. जिनको रोजगार मिला, उनकी तनख्वाहें भी बढ़ीं तेजी से, लेकिन काम के घंटों का कोई हिसाब नहीं रह गया. हर चीज पैसे के बरक्स आंकी जाने लगी. सफलता का मतलब सिर्फ यह होता चला गया कि आप कितना पैसा कमा रहे हैं.

अच्छी सड़कें बनीं तो इसलिए कि कारों के लिए बाजार में मांग हो. उन सड़कों पर चलने के लिए टोल भी लगा दिया गया. सरकारी अस्पताल और हमारे स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय खराब होते गये. पुस्तकालय या तो बंद हो गये या लगभग मृत हैं. सार्वजनिक पार्क खत्म हो गये और जो बचे हैं उनकी हालत खराब है. जिनका रखरखाव अच्छा है, उनमें प्रवेश पर टिकट है. शिक्षक वर्ग की शिक्षण में न रुचि है और न वह अच्छी शिक्षा देने लायक है.

1991 से पहले अमूमन सरकारी स्कूल शहर या जिले के सबसे अच्छे स्कूल होते थे जहां प्रवेश मिलना गौरव का विषय होता था. लेकिन आज सरकारी स्कूलों में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता. सरकारी अस्पताल खराब होते चले गये और उनकी जगह गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवा निजी अस्पतालों के नाम हो गयी.

सोचिए, क्या यही विकास है? क्या गलाकाट प्रतिस्पर्धा से भरा जीवन ही गुणवत्तापूर्ण है? या फिर असली विकास तब कहेंगे जब भले हम पैसा कम कमाते हों, लेकिन हमारे बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा (वैसी ही जैसी किसी आइएएस, नेता, सीइओ आदि के बच्चे को उपलब्ध है) सुनिश्चित हो, भले ही हमारे पास पैसा न हो लेकिन अच्छी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा की गारंटी हो, भले ही हम कार से न चल सकें लेकिन हमारे पास अपने परिवार के साथ बिताने को वक्त हर दिन हो, भले ही हम साइकिल से चलते हों लेकिन हम भी चौड़ी सड़कों पर बिना डर के चल सकें और कोई पुलिसवाला हमें हिकारत से न देखे.

भले ही हमारे शहरों में मॉल और रेस्टोरेंट कम हों, लेकिन हमें धर्म-जाति-नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव या बदसलूकी का सामना न करना पड़े. भले ही 4जी न आये, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट बनाये रखने की लालसा और समय हमारे पास हो. मैं कई बार सोचता हूं जो लोग सिर्फ अपने काम भर पैसा कमा रहे हैं, उनका भी सारा वक्त काम की भेंट चढ़ जाता है.

सोचिए और यदि आप सहमत हों तो इस बार वोट मांगनेवालों से पूछिए कि उनके विकास के मॉडल से हमारे जीवन की गुणवत्ता किस तरह प्रभावित होने वाली है? पूछिए कि उनका मॉडल कैसे हमारे बच्चों के लिए एकसमान व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का इंतजाम करेगा? पूछिए कि क्या उनका मॉडल हर आदमी को हारी-बीमारी में विज्ञान की नयी-नयी खोजों का सहारा दे सकेगा? क्या उनका मॉडल हमारी साइकिल के लिए भी सड़क बनाने को प्राथमिकता पर रख सकेगा? पूछिए तो इनके विकास की पोल खुल जायेगी.

और अंत में..

कवि मित्र अग्निशेखर ने फेसबुक पर पाकिस्तान के मशहूर शायर सलमान हैदर की एक कविता पोस्ट की है. कट्टरपन पर जबरदस्त प्रहार है इसमें. हमारे मुल्क को भी ऐसे कवियों व कविताओं की जरूरत है..

मैं भी काफिर, तू भी काफिर
फूलों की खुशबू भी काफिर
शब्दों का जादू भी काफिर
यह भी काफिर, वह भी काफिर
फैज भी और मंटो भी काफिर
नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफिर
हंसी गुनाह, जोक भी काफिर
तबला काफिर, ढोल भी काफिर
प्यार भरे दो बोल भी काफिर
सुर भी काफिर, ताल भी काफिर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफिर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफिर
काफी और खयाल भी काफिर
वारिस शाह की हीर भी काफिर
चाहत की जंजीर भी काफिर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफिर
भेंट नियाज की खीर भी काफिर
बेटे का बस्ता भी काफिर
बेटी की गुड़िया भी काफिर
हंसना-रोना कुफ्र का सौदा
गम काफिर, खुशियां भी काफिर
जीन्स भी और गिटार भी काफिर
टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफिर
कला और कलाकार भी काफिर
जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफिर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफिर
डार्विन भाई का बंदर काफिर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफिर
मार्क्‍स के सब मतवाले काफिर
मेले-ठेले कुफ्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफिर
कुछ मस्जिद में अंदर काफिर
मुस्लिम देश में अक्सर काफिर
काफिर काफिर मैं भी काफिर
काफिर काफिर तू भी काफिर.

।। राजेंद्र तिवारी।।

(कारपोरेट संपादक प्रभात खबर)

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