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ढिबरीवाला नकली भूत
वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार उस दिन सारा शहर ठिठुर रहा था. ज्यादातर लोग घरों के अंदर रजाई में दुबक कर बैठे थे, लेकिन हम कई मित्र श्मशान घाट पर थे. अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने एक प्रिय मित्र की अंतिम विदाई को आये थे. सूर्य देवता के सुबह से ही दर्शन नहीं हुए थे. चिराग जलने […]
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
उस दिन सारा शहर ठिठुर रहा था. ज्यादातर लोग घरों के अंदर रजाई में दुबक कर बैठे थे, लेकिन हम कई मित्र श्मशान घाट पर थे. अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने एक प्रिय मित्र की अंतिम विदाई को आये थे. सूर्य देवता के सुबह से ही दर्शन नहीं हुए थे. चिराग जलने से एहसास हुआ कि सूर्यास्त होने को है. कई चिताएं एक साथ जल रही हैं. आज सुबह से ही मृतकों के आने का सिलसिला जारी है. जब सर्दी या गर्मी ज्यादा होती है, तो आमद बढ़ जाती है.
कई को अंतिम संस्कार के लिए प्लेटफाॅर्म नहीं मिलता है. संयोग से हमारे मित्र को मिल गया. हिंदू धर्म के अनुयायी सूर्यास्त के बाद नहीं आते, लेकिन हमारे मित्र के परिवारीजन ये सब नहीं मानते थे.
मुखाग्नि के पश्चात ज्यादातर लोग खिसक लिये. लेकिन, हम और हमारे मित्र निर्णय लिये कि तब तक रुके रहेंगे, जब तक कि चिता पूरी तरह आग न पकड़ ले. अंधेरा पूरी तरह छा चुका था और कोहरा भी घना हो चुका था. हम दोनों पास वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठ गये. उन दिनों नगर निगम की ओर से कुछ नये प्लेटफाॅर्म बनाये जाने और समस्त नागरिक सुविधाएं देने की कवायद चल रही थी, ताकि यह स्थान थोड़ा रमणीक लगे. यह अर्द्धनिर्मित दुकान भी इसी कवायद का हिस्सा थी.
तभी हमने गौर किया कि हमारे पीछे किसी ने ढिबरी जलाई है. हमने मुड़ कर पीछे देखा. हां वाकई वहां कोई था. बदन में झुरझुरी सी उठी. पूछा- कौन हो भाई. वह बोला यहीं साइट पर काम करता हूं. रात यहीं सो जाता हूं. ठेकेदार ने कहा है. सामान की रखवाली भी होती रहेगी.
कौतुहलवश हमने पूछा- ये नये प्लेटफॉर्म कब तक तैयार हो जायेंगे? उसने पलट कर पूछा- आपको कब लेटना है? हमें उसका जवाब कुछ अजीब सा लगा. हमने कोई जवाब नहीं दिया. सामने देखने लगे. तभी टार्च लिये एक सज्जन आये. वह मृतक के रिश्तेदार थे. बोले, देर हो रही है. आप जाओ. हम भी चल रहे हैं. हम उठे. अचानक हमारी निगाह पीछे गयी. ढिबरी नहीं जल रही थी. हमें कुछ संदेह हुआ. उन सज्जन के हाथ से टाॅर्च लेकर हमने देखा.
हम सन्न रहे गये. वहां तो कुछ भी नहीं था. उस भयंकर सर्दी में भी हमारा पसीना छूट गया और घने कोहरे के बावजूद हम तेजी से हम बाहर निकले.
इस बीच हम एक-दूसरे से कुछ न बोले. अपनी स्कूटी उठायी और घने कोहरे में रास्ता टटोलते हुए निकल लिये. रास्ते भर गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा की कुछ याद रही पंक्तियां गुनगुनाते हुए घर पहुंचे. पत्नी को कुछ नहीं बताया. या तो डर जायेगी या हमें और भी डरा देगी. रात भर सिट्टी-पिट्टी गुम रही. जरा सी आहट होते ही डर जाते और इस भयंकर सर्दी में पसीना निकल आता. हमने घर की बत्तियां भी जला रखी थीं.
मित्र का फोन आया. चलो असलियत पता करते हैं. मित्र ज्यादा कठोर दिल था. उसे यकीन नहीं होता था ऐसी बातों पर. बहरहाल, हम वहां पहुंचे. पुरोहिती करनेवाला एक मिल गया. उसे रात की घटना बतायी. वह हंस दिया- हां, है एक बदमाश. मसखरा साला नकली भूत. यहां का माहौल ही ऐसा है कि थोड़ा हंसी-मजाक जरूरी है. आप डरो नहीं. हमारी जान में जान आयी. हम भी हंस दिये.
कई साल हो चुके हैं. वह मित्र तो पांच साल पहले ही हमें अकेला छोड़ कर इस फानी दुनिया से निकल लिया था. उस दुकान में इस वक्त नगर निगम का दफ्तर है. वही ढिबरी वाला नकली भूत वहां बाबू है, मृतकों की एंट्री करता है. अक्सर आने-जाने के कारण हमारी उससे मित्रता हो गयी है. हमें देख कर बोलता है- एंट्री कर दूं क्या? हम मुस्कुराते हैं- अभी टाइम नहीं आया है.
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