राजनीतिक दलों का अस्तित्व और प्रभावी चुनावी अभियान स्वस्थ लोकतंत्र के मूल घटक हैं. भारत और अन्य देशों में राजनीतिक दल अपने खर्च के लिए धन इकट्ठा करते हैं. लेकिन, राजनीतिक चंदा हासिल करने में पारदर्शिता की कमी के कारण चुनावी तंत्र पर अक्सर सवाल उठते हैं और कालेधन से जुड़ी आशंकाएं पैदा होती हैं. स्वैच्छिक योगदान से मिलनेवाला चंदा पार्टियों की आय का सबसे बड़ा माध्यम है. यदि इस चंदे में नाजायज तरीके से कमाया गया और लिया गया धन शामिल हो, तो इससे लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रिया पर खराब असर पड़ता है.
संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका जैसी शासन से जुड़ी तमाम संस्थाओं के हिसाब-किताब पर तो चर्चा होती रहती है, लेकिन कमाई के मसले पर राजनीतिक पार्टियां अक्सर जनता के ध्यान में आने से बच जाती हैं. लोकतांत्रिक गतिविधियों पर अध्ययन करनेवाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में राष्ट्रीय दलों को अज्ञात स्रोतों से मिलनेवाली आय में 313 फीसदी और क्षेत्रीय दलों की आय में 652 फीसदी की वृद्धि हुई है.
इन दलों को 2004-05 से 2014-15 के बीच चंदे से मिली 11,367 करोड़ की राशि में से 69 फीसदी आय अज्ञात स्रोतों से हुई थी. नियमों के अनुसार 20 हजार रुपये से कम राशि के चंदे के स्रोत को घोषित करना अनिवार्य नहीं है. दलों को आयकर में भी छूट मिली हुई है. छूट का गलत लाभ उठाने के लिए दल नियमों को ताक पर रखने से गुरेज नहीं करते हैं. आयोग में पंजीकृत 1,848 राजनीतिक दलों में संभव है कि कुछ दल अज्ञात स्रोतों से आनेवाले धन के खेल में शामिल हों. आश्चर्यजनक है कि विमुद्रीकरण में दलों ने अपनी नकदी का क्या किया, इसकी जानकारी किसी भी दल ने सार्वजनिक नहीं की है.
पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए करों में छूट की सीमा को कम करने, अज्ञात स्रोत से मिलनेवाली राशि की सीमा 20,000 से नीचे लाने, चुनावों में निष्क्रिय दलों की मान्यता रद्द करने जैसे उपायों पर विचार करने की जरूरत है. जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम और आयकर अधिनियम में संशोधन की लंबे समय से लंबित मांग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए भी राजनीतिक दलों के लेखा-जोखा में पारदर्शिता लाना बहुत आवश्यक है.