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विभाजन का दर्द समझना जरूरी
कभी लौहपुरुष सरदार पटेल ने देश की छोटी-छोटी रियासतों को मिला कर भारत को यथेष्ट रूप दिया था. लेकिन राष्ट्रीय एकता के इस पैरोकार ने तब शायद सपने में भी न सोचा होगा कि उनके उत्तराधिकारी विकास की आड़ में विभेदकारी सियासत का ऐसा बीज बोयेंगे, जो आगे राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए ही […]
कभी लौहपुरुष सरदार पटेल ने देश की छोटी-छोटी रियासतों को मिला कर भारत को यथेष्ट रूप दिया था. लेकिन राष्ट्रीय एकता के इस पैरोकार ने तब शायद सपने में भी न सोचा होगा कि उनके उत्तराधिकारी विकास की आड़ में विभेदकारी सियासत का ऐसा बीज बोयेंगे, जो आगे राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए ही घातक हो जायेगा.
‘बांटो और राज करो’ की वर्तमान नीति से आज तकरीबन हर बड़े राज्य पर विभाजन का खतरा मंडरा रहा है. इन बंटवारों से न केवल देश की संसदीय मर्यादा तार-तार हो रही है, बल्कि सड़क से संसद तक कोहराम मचा है. इसकी नजीर आंध्र प्रदेश के बंटवारे के रूप में हम देख रहे हैं.
आंध्र के बंटवारे में सीमांध्रवासियों की भावनाओं व उनके हितों को नजरअंदाज किया गया. उनकी पीड़ा बेजा नहीं है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि कल वे अपने ही राज्य में बेगाने कहे जायेंगे. जैसे बिहार से झारखंड के अलग होते ही झारखंड में बसे बिहारियों को बाहरी कहा जाने लगा. मगर इससे राजनेताओं और उनकी पार्टियों को क्या लेना देना? वो तो राज्य विभाजन से आहत समूहों में भी अपने लिए वोट की संभावनाएं तलाशते फिर रहे हैं. कल भाजपा की केंद्रीय सरकार ने भी वही किया था जो आज कांग्रेस कर रही है.
सवाल है कि केवल विकास और सुशासन की मांग पर यदि क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं पनपने की आजादी दी जाये और राजनीतिक चश्मे से देख कर उस पर फैसले लिये जायें, तो आगे यह देश कई और टुकड़ों में बंटा नजर आयेगा. बहरहाल आंध्र बंट चुका है, महज कुछ औपचारिकताएं बाकी हैं. लेकिन क्षेत्रीय असंतोष को पाटने में नाकाम ये राजनीतिक पार्टियां अपनी नाकामी छिपाने के लिए कब तक यूं ही संविधान के अनुच्छेद-3 का सहारा लेती रहेंगी?
रवींद्र पाठक, ई-मेल से
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