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सवालों में घिरी नोटबंदी
अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक आज से एक हफ्ते बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वयं-निर्धारित 50 दिन की समय-सीमा समाप्त हो रही है. देश इंतजार कर रहा है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी के वादे के अनुसार हालात सामान्य हो जायेंगे या फिर छह महीने और लगेंगे, जैसा कि सरकार विरोधी कह रहे हैं? असमंजस की स्थिति […]
अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
आज से एक हफ्ते बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वयं-निर्धारित 50 दिन की समय-सीमा समाप्त हो रही है. देश इंतजार कर रहा है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी के वादे के अनुसार हालात सामान्य हो जायेंगे या फिर छह महीने और लगेंगे, जैसा कि सरकार विरोधी कह रहे हैं? असमंजस की स्थिति है. आम आदमी और अर्थशास्त्री, सभी कयास लगा रहे हैं. पर, प्रश्न बहुत हैं और उत्तर कम.
नोटबंदी पर प्रधानमंत्री मोदी को देशभर से जबरदस्त समर्थन मिला है. इसकी बानगी हाल में हुए महाराष्ट्र और चंडीगढ़ के निकाय चुनावों में बीजेपी को मिली जबरदस्त सफलता से मिली है.
पर, सच यह भी है कि जहां प्रधानमंत्री मोदी के इस क्रांतिकारी कदम को बड़े पैमाने पर समर्थन मिल रहा है, वहीं बैंकों के बाहर लगी लाइनें खतम होने का नाम नहीं ले रही हैं. जनसंख्या के एक बड़े भाग का सब्र टूट रहा है. सरकार आम आदमी के लिए बीते 40 दिन में 53 बार नोटों को जमा करने और निकासी के नियम बदल चुकी है. दबी जबान से ही सही, नोटबंदी के समर्थक भी अब विरोधिओं की भाषा बोल रहे हैं. वे कह रहे हैं- ‘कदम बहुत अच्छा है, पर क्रियान्वयन बहुत खराब है’. ऐसा आपको हर दूसरा व्यक्ति कहता मिल जायेगा.
बहुत तरह के प्रश्न उठ रहे हैं. क्या सच में नोटबंदी से अर्थव्यवस्था कमजोर होगी? क्या नकदी की कमी से बाजार में मांग घटेगी? क्या डिजिटल पेमेंट नकद लेनदेन की कमी पूरी कर पायेगा? क्या मांग कम होने से औद्योगिक उत्पादन घटेगा? क्या नौकरियां कम होंगी? क्या इन सब का
असर हमारी जीडीपी पर पड़ेगा? क्या भारत कैशलेस बन जायेगा? मोदी सरकार के समर्थक और विरोधी सभी इन प्रश्नों में उलझे हुए हैं.
सबसे मूल प्रश्न आज यह है कि क्या कालेधन को खत्म करने का नोटबंदी का मकसद पूरा होगा? क्या सरकार को इसमें कामयाबी मिल रही है? लगता तो नहीं, क्योंकि मीडिया की मानें, तो ज्यादातर बड़े पैसे वालों ने अपना जुगाड़ कर लिया है. इसीलिए जहां लोगों को 2 हजार नहीं मिल रहे हैं, वहीं रोज करोड़ों रुपये की नयी मुद्रा पकड़े जाने की खबरें आ रही हैं.
बैंकों और काले खेल के अपराधियों की मिली-भगत लोगों को नाराज कर रही है. प्रसिद्ध व्यंग्यकार स्वर्गीय हरिशंकर परसाई की पंक्तियां यहां बड़ी सामयिक हैं. उन्होंने लिखा था- ‘सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानियां रखी हैं. एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की. उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिए है. चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है. पिंजड़े बनानेवाले और चूहे पकड़नेवाले चूहों से मिले हैं. वे इधर हमें पिंजड़ा दिखाते हैं और उधर चूहे को छेद दिखा देते हैं. हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है.’ प्रश्न उठ रहा कि नोटबंदी कहीं इस चूहेदानी जैसी ही तो साबित नहीं हो रही है?
कालेधन पर चोट के अलावा सरकार का दूसरा घोषित लक्ष्य है अर्थव्यवस्था को कैशलेस बनाना. क्या कम समय में देश को कैशलेस बनाया जा सकता है? सरकार सभी को बैंकिंग सिस्टम में लाना चाहती है यह अच्छी बात है. लेकिन, क्या यह संभव है? जन-धन योजना से इस दिशा में एक बड़ा, सार्थक प्रयास भी हुआ है, पर दिल्ली अब भी दूर है. साल 2015 की प्राइस वाटरहाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 23.3 करोड़ लोग अब भी बैंकिंग दायरे से बाहर हैं.
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, देश की 131 करोड़ जनता के लिए आज कुल 1.34 लाख बैंक की शाखाएं हैं, अर्थात् लगभग 10,000 लोगों के लिए एक बैंक. इनमें भी ज्यादातर बैंक शहरी क्षेत्रों में ही हैं. हमारे 5 लाख 90 हजार गांवों के लिए तो मात्र 50 हजार बैंक ही हैं- मतलब 12 गांव के लिए एक बैंक. देश के 80 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं. कैसे और कब तक जुड़ेंगे ये सब बैंकिंग से? पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में तो यह और भी दुष्कर है.
तो क्या यह नोटबंदी वाकई देश के लिए बुरी है? संभवतः नहीं. दरअसल, यह एक ऐसी कड़वी गोली की तरह है, जो शुरुआत में खराब लगती है, पर उसके दूरगामी परिणाम अच्छे होते हैं. नोटबंदी भी ऐसा ही एक सार्थक कदम है. आशा है कि इससे अर्थव्यवस्था में गुणात्मक सुधार आयेगा. अधिक संख्या में लोग मुख्यधारा से जुड़ेंगे. मितव्ययिता बढ़ेगी और मुद्रास्फीति पर लगाम लगेगी. ईमानदारी से कमाये गये पैसे को सम्मान मिलेगा. भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी. अंततः बाजारों में रौनक भी लौटेगी और खरीदार भी. लेकिन, सरकार को बड़ी घोषणाएं करने से पहले सोचना चाहिए. हर चीज चुनाव की बाबत नहीं होती. दशकों से पनप रही बीमारी को 50 दिन में सही नहीं किया जा सकता. इसमें समय लगेगा और देश को इसके लिए विश्वास में लेने की जरूरत है.
नोटबंदी के विरोध में खड़ी कांग्रेस को भी याद करना चाहिए, आज से 40 वर्ष पूर्व इंदिरा जी के उस क्रांतिकारी कदम को, जिसकी हर ओर भर्त्सना हुई थी- वह थी नसबंदी. पूरा देश विरोध में खड़ा हो गया था और 1977 के चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो गया था. पर, क्या इंदिरा जी का यह कदम सच में बुरा था? बिलकुल नहीं. हालांकि, नसबंदी फेल हुई और नतीजतन आज हमारी जनसंख्या तब से अब तक दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है. सभी मानते हैं कि भारत की ज्यादातर समस्याओं की जड़ में बढ़ती जनसंख्या ही है. अगर नसबंदी और ‘हम दो, हमारे दो’ के नारे का सम्यक क्रियान्वयन होता, तो आज के भारत की तस्वीर कुछ और ही होती.
यही हाल नोटबंदी का भी है. हमें समझना चाहिए कि जो देश के लिए अच्छा है, वह सभी के लिए अच्छा है. नसबंदी सफल नहीं हुई, उसके परिणाम हम आज भुगत रहे हैं. अब जरूरी है कि नोटबंदी का हश्र नसबंदी जैसा न हो. राजनीति से ऊपर उठ कर सब साथ आयें और इसे सफल करें, इसी में सबका हित है. राजनीति करने के लिए मुद्दे और भी हैं.
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