शायद ही कोई होगा, जिसे जम्मू के नगरोटा की सैन्य छावनी पर आतंकी हमले के बाद उड़ी हमले की याद न आयी हो. इसकी बड़ी वजह यह नहीं है कि पाकिस्तान अपने पाले हुए आतंकियों के जरिये हमारे देश के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने की कुत्सित मंशा से बाज नहीं आ रहा है और भारतीय सैन्य ठिकानों पर हमलों का सिलसिला लगातार जारी है. नगरोटा की आतंकी घटना बेशक उड़ी की घटना की ही तरह गंभीर है. मारे जाने से पहले आतंकी नगरोटा में भी इस स्थिति तक पहुंच चुके थे कि सैनिकों या फिर नागरिकों को बंधक बना सकें. भारतीय सैनिक और नागरिकों को हताहत करने में भी वे पहले की तरह कामयाब हुए.
उड़ी हमले के बाद जम्मू-कश्मीर में हमारी सुरक्षा-व्यवस्था के चाक-चौबंद होने को लेकर चिंताएं पैदा हुई थीं और वे चिंताएं हमारे सामने फिर मौजूद हैं. लेकिन, नगरोटा की घटना को उड़ी से जोड़ने में ये बातें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितनी कि सर्जिकल स्ट्राइक का तथ्य.
उड़ी में जैश-ए-मोहम्मद के चार आतंकियों के हाथों 19 भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद देश ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी सेना की सरपरस्ती में हो रही आंतकियों की घुसपैठ रोकने की अपनी नीति में एक मूलगामी बदलाव किया. उस हमले के जवाब में सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक का फैसला किया था और भारतीय सेना ने आत्मरक्षा में हथियार उठाने की अपनी परंपरागत नीति की जगह दुश्मन को चोट पहुंचाने की आक्रामक नीति अपनायी थी.
एक तरफ भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से में आतंकी पनाहगाहों पर सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तानी सैन्य और खुफिया तंत्र को अचंभित करने में सफलता पायी, तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ताकत की राजनीति करनेवाले मुल्कों के बीच यह संदेश भी गया कि बात यदि देश की एकता-अखंडता पर चोट की हो, तो भारत अब पहले की तरह किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता में समझाने-बुझाने की नीति पर नहीं चलनेवाला है. अब वह आत्म-सम्मान की रक्षा में दूसरे देश की सीमा लांघ कर बराबर की चोट पहुंचाने की राह अपना सकता है.
सेना के मनोबल को ऊंचा बनाये रखने के लिहाज से भी सर्जिकल स्ट्राइक का फैसला एक बड़ी कामयाबी थी. लेकिन, नगरोटा की घटना के बाद इस फैसले की रणनीतिक सफलता पर फिर से सोचने की जरूरत है. नगरोटा के सैन्य-शिविर पर हुए आतंकी हमले ने साबित किया है कि सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये पाकिस्तानी सेना और सरकार को अचंभित तो किया जा सकता है, पर इससे कश्मीर में आतंकी घुसपैठ की उसकी कोशिशों को रोकना नामुमकिन है.
सर्जिकल स्ट्राइक के फैसले को उचित ठहराने के लिए मुख्य तर्क यही दिया गया कि सुरक्षा के तमाम बंदोबस्त के बावजूद दुश्मन आपको चोट पहुंचाने में लगातार कामयाब हो रहा है, तो बेहतर यही है कि दुश्मन की चोट पहुंचाने की ताकत पर हमला कर दिया जाये. पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में घुस कर आतंकी पनाहगाहों पर भारतीय सैन्य टुकड़ी के हमले (29 सितंबर) को अब दो महीने बीत चुके हैं. इस अवधि में जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले की 16 बड़ी वारदात हो चुकी है, जिसमें देश के सैनिक शहीद हुए हैं या फिर नागरिकों ने जान गंवायी है.
सर्जिकल स्ट्राइक के फैसले के तुरंत बाद के हफ्ते की आतंकी घटनाएं विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं. तब मानो आतंकी वारदात की एक तरह से बाढ़ ही आ गयी. एक से आठ अक्तूबर तक हर दिन आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर में कहीं-न-कहीं हमला किया. नवंबर महीने की 29 तारीख तक राज्य में आतंकी हमले की नौ संगीन वारदातें हो चुकी हैं. इससे साफ जाहिर है कि कश्मीर में आतंकी घुसपैठ के जरिये वहां जारी अलगाववादी तत्वों की हिंसा को बढ़ावा देने की पाकिस्तान की ताकत भारत के सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं हुई है.
नगरोटा की घटना हमारी कश्मीर-केंद्रित रक्षानीति पर फिर से विचार करने का अवसर है. इस घटना को यह कह कर नहीं टाला जा सकता है कि पाकिस्तान के नये सेना-प्रमुख के समय में भी पाकिस्तान कश्मीर को लेकर घुसपैठ की अपनी पुरानी नीति पर चलता रहेगा, सो भारत को या तो फिर से सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये कड़ा जवाब देना चाहिए या फिर यह कि कश्मीर में आतंकवाद के उकसावे की हर पाकिस्तानी कोशिश का भारत पहले की तरह पुरजोर जवाब देता रहेगा. जरूरत समस्या पर पुनर्विचार करने की है. अपनी सुरक्षा तैयारियों और इंटेलिजेंस तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करने के साथ कश्मीर घाटी में अमन-चैन की बहाली पर भी पुरजोर ध्यान देना होगा.
जुलाई से जारी तनावपूर्ण माहौल को शांत करने के लिए ठोस प्रयासों का अभाव साफ दिखता है. घाटी में स्थिति को सामान्य बना कर पाकिस्तानी इरादों को बड़ी चोट दी जा सकती है.
पाकिस्तान के शत्रुतापूर्ण व्यवहार और कश्मीर की समस्या को समतुल्य समझ कर सैन्य-कार्रवाइयों में समाधान खोजने की हमारी कोशिशें फिलहाल कामयाब नहीं हैं. दक्षिण एशिया के भीतर दो परमाण्विक ताकतों भारत और पाकिस्तान के बीच हिंसक तनाव से पहले भी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकले हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि सैन्य मोर्चे पर पर्याप्त चौकसी बरतते हुए सरकार कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में सकारात्मक कदम उठायेगी.