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अरुण यह मधुमय देश हमारा

!!डॉ बुद्धिनाथ मिश्र,वरिष्ठ साहित्यकार!!हिमालय के पूर्वी प्रांगण में जहां ब्राह्म मुहूर्त में अरुणिम सूर्य सबसे पहले भारत की देहरी पर पांव धरता है, वह प्रदेश कभी ‘नेफा’ था, मगर आज अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है. इसके चप्पे-चप्पे में ऐसे हजारों पुरातात्विक अवशेष हैं, सैकड़ों दुर्लभ देव-प्रतिमाएं हैं, जिनका अवलोकन किये बिना भारतीय […]

!!डॉ बुद्धिनाथ मिश्र,वरिष्ठ साहित्यकार!!
हिमालय के पूर्वी प्रांगण में जहां ब्राह्म मुहूर्त में अरुणिम सूर्य सबसे पहले भारत की देहरी पर पांव धरता है, वह प्रदेश कभी ‘नेफा’ था, मगर आज अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है. इसके चप्पे-चप्पे में ऐसे हजारों पुरातात्विक अवशेष हैं, सैकड़ों दुर्लभ देव-प्रतिमाएं हैं, जिनका अवलोकन किये बिना भारतीय संस्कृति और भारतीय इतिहास का आकलन अधूरा है. एक ओर पड़ोसी देश चीन समय-समय पर इस प्रदेश पर अपना हक जता कर हमारी चिंता बढ़ा रहा है, वहीं दूसरी ओर पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में हुए एक अप्रिय कांड ने पूरे अरुणाचल को झकझोर दिया है. कभी अहोम राजा राजेश्वर सिंह ने असम से लेकर अरुणाचल प्रदेश ही नहीं, भूटान तक आवाजाही सुगम करने के लिए ‘चौबीस दुवार’ बनवाये थे, मगर आज उसी क्षेत्र में आने-जाने के लिए भारतीयों को भी परमिट लेना पड़ता है. इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी! सुखद पक्ष यह है कि यहां की शिक्षा की माध्यम भाषा हिंदी है, जिससे यहां के नागरिक हिंदी अच्छी तरह जानते हैं और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक आसानी से देशवासियों से संवाद कर सकते हैं.

सुदूर पर्वतीय अंचलों में रहनेवाली ये जनजातियां पहले जैसी आदिम अवस्था में नहीं हैं. इनके चांगघरों तक बिजली, कंप्यूटर-मोबाइल, लैपटाप, रसोई गैस, फ्रिज, टीवी सब पहुंच गयी है. भारत सरकार और अरुणाचल विकास परिषद द्वारा संचालित स्कूल इनके बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए हर जगह मौजूद हैं. परिषद के सदस्य देश के कोने-कोने से यहां आकर और विषम परिस्थितियों में रह कर भी जनजातियों से जिस तरह एका बना कर उन्हें विकास की ओर अग्रसर कर रहे हैं, यह स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है.उत्तरोत्तर विकासशील होते हुए भी अरुणाचल की जनजातियां अपनी रीति-रिवाज, आस्था-विश्वास और अपनी अस्मिता को बचाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. यहां 30 के करीब जनजातियां हैं, जिनमें आदी, खामती, आपातानी, मिश्मी, शेरतुकपेन, मोन्पा, बुगुन, मिरी प्रमुख हैं. इनकी अनेक उपजातियां भी हैं. अरुणाचल के उत्तरी भाग में भयानक ठंड और दक्षिण में गर्मी रहती है. यहां के 16 जिलों का नामकरण लोहित, दिवांग, सियांग, सुवणशिरी, पापुम पारे, कामेंग, चांगलांग आदि नदियों के नाम पर हुआ है. इस क्षेत्र की प्रमुख नदी-घाटियों के पुराने नाम पर ही बाद में जिलों के नाम पड़ गये. अरुणाचल का 62 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है, क्योंकि साल के छह महीने यहां वर्षा होती है. इसका 85 प्रतिशत भाग पर्वतों से घिरा है. इसके पूर्वोत्तर में चीन, पूर्व में म्यांमार (बर्मा) और पश्चिम में भूटान है. पहले यह क्षेत्र कामरूप राज्य के अंतर्गत आता था. कुंडिल, चेदि आदि यहां के प्राचीन राज्य थे. सन् 1972 में भारत सरकार ने ‘नेफा’ को ‘अरुणाचल प्रदेश’ नाम से पृथक राज्य बना दिया.प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र का देश के अन्य भागों से प्रगाढ़ संबंध रहा है. ताम्रेश्वरी, भालुकपुंग, ईटानगर, भीष्मक नगर, मालिनी नाथन आदि में बिखरे पड़े प्राचीन भग्नावशेष इस प्रदेश की प्राचीन भारतीय संस्कृति के साक्षी हैं. प्रदेश की राजधानी इटानगर के संग्रहालय में राज्य के सुदूरवर्ती गांवों से प्राप्त पाषाण युग के अवशेष प्रतीक-पूजा के संकेत देते हैं. यहां के जंगलों में बड़ी संख्या में उपलब्ध शिवलिंग इस क्षेत्र के शिव-पूजा के केंद्र होने के प्रमाण हैं. हापोली के दुर्जन वन में 25 फुटा सिद्धेश्वर शिवलिंग के साथ 18 फुट की शिला-रूप पार्वती और वहां अनवरत बहता जलस्नेत भक्तजनों को मुग्ध कर देता है.

यहां की जनजातियां कृषि-जीवी है. यहां की हल्दी और अदरक पूरे देश के रसोईघरों में जाती है. यहां के कीवी फल और आर्किड फूल राज्य के बाहर अपना वर्चस्व बनाये हुए है. कामेंग नदी के किनारे बसा तिपी एशिया की सबसे बड़ी आर्किड पौधशाला है, जहां 7,500 किस्म के आर्किड उगा कर सहेजे जाते हैं. कीवी फल चीन से अरुणाचल क्षेत्र में बहुत पहले आ गया था. 1906 में पहली बार यह फल न्यूजीलैंड ‘चाइनीज गूजबेरी’ नाम से गया और न्यूजीलैंड के पक्षी कीवी से मिलता-जुलता होने के कारण ‘कीवी’ कहलाने लगा. पूरे भारत में चाय का चस्का लगाने का श्रेय इसी प्रदेश की सिम्फो जनजाति को जाता है, क्योंकि अंग्रेजों ने चाय की खेती के लिए बीज सिम्फो से ही लिये थे.यहां दूध का प्रयोग नहीं के बराबर होता है. चाय भी बिना दूध के (लाल चाय) पी जाती है. मांस-मछली और चावल-मक्का-मंड़ुआ आदि से बनी शराब ‘आपोंग’ इनके खानपान का बुनियादी हिस्सा है. भैंस से बड़े आकार का मवेशी ‘मिथुन’ किसी परिवार की संपदा का सूचक है. विवाह में दहेज के रूप में मिथुन ही दिये जाते हैं. पर्व-त्योहारों में पूजा-बलि के बाद सबको आपोंग वितरित कर भात के साथ बलि-मांस का प्रसाद खिलाया जाता है. धार्मिक दृष्टि से ये जनजातियां तीन भागों में विभक्त हैं—प्रकृति-पूजक, बौद्ध और अन्य. अधिकांश जनजातियां दोन्यी-पोलो (सूर्य-चंद्र) के उपासक हैं. ये नमस्ते की जगह ‘न्यान तोपे दान्यी पिल्यो’ (हे सूर्य-चंद्र, हमें शक्ति दो) कहते हैं.

यहां की जनजातियों की विशाल किरात-सेना महाभारत में दुर्योधन की ओर से लड़ी थी, क्योंकि दुर्योधन प्राग्ज्योतिषपुर नरेश भगदत्त का जामाता था. श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी किरात राजा भीष्मक की पुत्री थी. भालुकपुंग असम और अरुणाचल की सीमा पर बसा एक छोटा-सा कस्बा है, जिसे बाणासुर के पौत्र भालुक ने बसाया था. यहां प्राचीन किला का भग्नावशेष आज भी पर्यटकों का ध्यान आकृष्ट करता है.प्रसिद्ध यात्रवृत्त लेखक श्री सांवरमल सांगानेरिया की पुस्तक ‘अरुणोदय की धरती पर’ अरुणाचल पर पहली पुस्तक है, जो इस राज्य के बारे में पूरी और अद्यतन जानकारी देती है. उन्होंने अरुणाचल की जनजातियों द्वारा प्रयुक्त अनेक शब्दों से हमें परिचय कराया है, जैसे तवांग= घोड़ा द्वारा चुना गया स्थान, लाऊ पानी=देशी शराब, चिनलिट=अदरक की माला, बुरंजी=इतिहास, रीदिन=रक्षा-सूत्र, न्यीतम=धर्मग्रंथ, आने= महिला लामा, खामति=स्वर्णभूमि, शुथो=शिव, कानी=अफीम, नात=पोखर, आबो=आकाश या पिता, गोला=दुकान, लिने=पाषाण स्मारक, हायी=जल आदि. अगली बार जब आप भारत-भ्रमण का कार्यक्रम बनायें, तो अरुणाचल प्रदेश को उसमें जरूर शामिल करें, क्योंकि वहां गये बिना आप प्रसादजी के गीत ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ का निहितार्थ नहीं समझ पायेंगे.

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