मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि अगर दिल्ली विधानसभा ने उनके जनलोकपाल और स्वराज विधेयक को पारित नहीं किया तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. उन्होंने यह भी कहा है कि इन विधेयकों को विधानसभा में पेश करने से पहले राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत नहीं है. आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में दिल्ली में सशक्त एवं प्रभावी लोकायुक्त बनाना तथा मोहल्ला सभाओं को स्थानीय मसलों से जुड़े अधिकार देना महत्वपूर्ण वायदे थे.
परंतु हकीकत यह भी है कि केजरीवाल सरकार कांग्रेस के समर्थन से चल रही है और इन विधेयकों को पहले राष्ट्रपति के पास भेजने या इनके विवादास्पद बिंदुओं पर कांग्रेस को भरोसे में लेने या विपक्ष से राय-मशविरेकी जरूरत नहीं समझी गयी. ऐसे में 13 फरवरी को पेश किये जा रहे दोनों विधेयकों का पारित हो पाना मुश्किल लग रहा है. इसे अल्पमत सरकार के मुखिया केजरीवाल भी बखूबी समझ रहे हैं. इसीलिए कांग्रेस और भाजपा पर दबाव बढ़ाने के लिए वे इस्तीफे की बात कर रहे हैं. हमें ध्यान रखना होगा कि लोकतंत्र साझेदारी और सहमति से चलनेवाली व्यवस्था है. इसमें विवादों और असहमतियों को बहस-मुबाहिसों से सुलझाने की कोशिश की जाती है.
केजरीवाल की नीयत और नीतियां सही हो सकती हैं. यह भी सही है कि भ्रष्टाचार पर नकेल के लिए बड़ी पहल व लगातार कोशिशों की जरूरत है. जरूरी यह भी है कि लोकतंत्र के सशक्तीकरण के लिए सत्ता का उत्तरोत्तर विकेंद्रीकरण हो. पर इनके लिए केजरीवाल जो रवैया अपना रहे हैं, उससे इस प्रक्रिया में तेजी के बजाय गतिरोध ही बढ़ेगा. गांधीजी ने कहा था, अपनी समझदारी को लेकर अत्यधिक आश्वस्त होना उचित नहीं है, क्योंकि मजबूत व्यक्ति भी कमजोर हो सकता है और सबसे बुद्धिमान भी गलतियां कर सकता है. राष्ट्रपिता की इस सलाह पर केजरीवाल और उनकी पार्टी को ध्यान देना चाहिए. बार-बार इस्तीफे और सड़क पर उतरने की धमकी स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती. उन्हें विभिन्न दलों व समझदारियों के साथ तालमेल बिठाने और राजनीतिक मयार्दाओं का पालन करने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए. उनकी हठधर्मिता भ्रष्टाचारमुक्त और विकेंद्रीकृत लोकतंत्र के लिए संघर्ष को नुकसान ही पहुंचायेगी.