गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
गांव में रहते हुए पलायन शब्द के कई अर्थों से परिचय हो रहा है. पलायन को केवल गांव से महानगर की ही यात्रा नहीं समझना चाहिए. पलायन, जिले के भीतर भी होता है, एक गांव से दूसरे गांव की तरफ भी होता है. इस प्रक्रिया में काफी कुछ नया होता है. मसलन, बोली-बानी सब बदल जाती है. लेकिन इन सबके बीच कोई चीज रह जाती है, तो वह है- यादें.
पलायन करते हुए गांव को नदी बांट देती है, नहरें बांट देती है. लेकिन, इन सब में जो सबसे कॉमन है वह है पानी. यादों को दो छोर पर रखने में इस पानी का अहम रोल है. उस बस्ती से दूर जहां हमारे अपने लोग बसे हैं, जहां संस्कार नामक बरगद का पेड़ खड़ा है और जहां हम बसे वहां बांस का झुरमुट हमारे लिए आशियाना तैयार करने में जुटा था.
पलायन की प्रक्रिया में मधुबनी से पूर्णिया की यात्रा में ‘किनारा’ पानी ही है. कालापानी. कुछ लोग इसे पश्चिम भी कहते हैं.
बूढ़े-बुजुर्ग कहते हैं- जहर ने खाउ माहुर ने खाउ, मरबाक होए तो पूर्णिया आऊ (न जहर खाइये, न माहुर खाइये, मरना है तो पूर्णिया आइये). और देखिए, हम मरने के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए इस पार आ गये.
विशाल परती जमीन हमारे हिस्से आ गयी. शहर मधुबनी से शहर-ए-सदर पूर्णिया अड्डा बन गया. मधुबनी जिले के तत्सम मैथिली से पूर्णिया के अप्रभंश मैथिली की दुनिया में हम कदम रखते हैं. हमारी बोली-बानी पर दूसरे शहर की छाप साफ दिखने लगी. सूप, कुदाल खुड़पी सबके अर्थ, उच्चारण, हमारे लिए बदल गये, लेकिन हम नहीं बदले, जुड़ाव बढ़ता ही चला गया, संबंध प्रगाढ़ होते चले गये.
पूर्णिया और मधुबनी के बीच कोसी एक कारक बन गयी. दो शहर कैसे अलग हैं, इसकी बानगी बाटा चौक और भट्टा बाजार है. एक भाषा यदि मधुबनी को जोड़ती है, तो वहीं विषयांतर बोलियां पूर्णिया को काटती हैं, लेकिन एक जगह आकर दोनों शहर एक हो जाते हैं.
वह है सदर पूर्णिया का मधुबनी मोहल्ला. कहते हैं- उस पार से आये लोगों ने इस मोहल्ले को बसाया. यहीं मैथिल टोला भी बस गया. धीरे-धीरे यहां प्रवासी एहसास भी मैथिल भाषियों को होने लगा. बंगाल से सटे रहने के कारण बांग्ला महक फैलती ही चली गयी. उस पार से आये किसान यहां जमींदार बन गये, कुछ निजाम बन गये, तो कुछ कई की आंख की किरकरी (चोखेर बाली) बन गये.
शहर पूर्णिया और शहर मधुबनी में जो अंतर सपाट तरीके से दिखता है, वह है लोगबाग. कामकाजी समाज आपको मधुबनी में मिलेगा, लेकिन पूर्णिया में यह अनुभव कुछ ही मोहल्लों में मिलेगा.
यह शहर शुरुआत में बड़े किसानों और अंगरेज किसानों, जिन्हें ‘जेंटलमेन फार्मर’ कहा जाता था, उनका आउट हाउस होता था. वे यहां कुछ वक्त के लिए कचहरी के काम से आते थे. उस वक्त पढ़ाई के लिए लोग मधुबनी-दरभंगा के कॉलेजों पर ही आश्रित थे. शिक्षा के मामले में मधुबनी-दरभंगा बेल्ट ही मजबूत था बनिस्बत पूर्णिया अंचल के.
अब हम धीरे-धीरे शहर से गांव की ओर मुड़ते हैं. धोती से लुंगी में आ जाते हैं. पोखर से धार (कोसी से फूट कर कई नदियां पूर्णिया जिले के गावों में बहती हैं, जिसमें जूट की खेती होती है) बन जाते हैं.
माछ से सिल्ली (पानी में रहनेवाली चिड़िया, जिसे कोसी के इलाके में लोग बड़े चाव से खाते हैं) के भक्षक बन जाते हैं. मैथिली गोसाइन गीत से भगैत बांचने लगते हैं. धर्म-संस्कार का असर कम होने लगता है, तो कुछ लोग डर से इसके (धर्म) और गुलाम बनते चले जाते हैं. दरअसल, पलायन शब्द हमें यात्री भी बनाता है.