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सार्क संगठन के विकल्प
डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री साउथ एशियन एसोसिएशन फाॅर रीजनल कोआॅपरेशन यानी सार्क संगठन के कार्यों में भारत एवं पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद रोड़ा बना हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा अफगानिस्तान, बांग्लादेश व भूटान ने पाकिस्तान में होनेवाले सार्क शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का निर्णय लिया है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ […]
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
साउथ एशियन एसोसिएशन फाॅर रीजनल कोआॅपरेशन यानी सार्क संगठन के कार्यों में भारत एवं पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद रोड़ा बना हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा अफगानिस्तान, बांग्लादेश व भूटान ने पाकिस्तान में होनेवाले सार्क शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का निर्णय लिया है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र के भाषण में कश्मीर को ही मुख्य मुद्दा बनाया था. इस विवाद के चलते सार्क को लकवा मार गया है. सार्क का उद्देश्य है कि क्षेत्र के देशों के बीच आपसी व्यापार एवं समन्वय को बढ़ा कर एक-दूसरे की समृद्धि एवं खुशहाली में सहयोग हो, परंतु कश्मीर विवाद के कारण सार्क की पूरी व्यवस्था भटक जा रही है.
इस गतिरोध के चलते सदस्य देशों ने सार्क को दरकिनार करते हुए द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों को संपन्न करना शुरू कर दिया है. श्रीलंका के व्यापार मंत्री ने हाल में कहा- ‘श्रीलंका का प्रयास है कि पाकिस्तान तथा भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को और गहरा बनाया जाये. दूसरे क्षेत्रीय देशों जैसे चीन, सिंगापुर के साथ भी द्विपक्षीय समझौता करने के प्रयास किये जा रहे हैं.’ उधर भूटान में भी मांग उठ रही है कि चीन के साथ व्यापार बढ़ाया जाये. नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड की दृष्टि चीन तथा भारत के बीच समभाव की है.
सार्क देश दो बड़े गुटों के बीच लटके हुए हैं. एक तरफ पाक-चीन का गंठबंधन है, तो दूसरी तरफ भारत. भौगोलिक दृष्टि से पाकिस्तान की तुलना में भारत भारी है. हमारे सामने चुनौती है कि सार्क देशों को अपने से जोड़ लें, जिससे इस क्षेत्र के विकास में कश्मीर विवाद बाधा न बने. इसके लिए हमें पाक को छोड़ कर शेष देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाहिए. एक संभावना है कि हम ‘बंगाल की खाड़ी मुक्त व्यापार क्षेत्र’ बनायें.
इसमें नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, मालदीव एवं श्रीलंका को जोड़ा जा सकता है. म्यांमार, लाओस तथा दूसरे पूर्वी-एशिया के देशों को भी जोड़ा जा सकता है. दूसरी, हम ‘हिंद महासागर मुक्त व्यापार क्षेत्र’ बनायें. इसमें ऊपर बताये देशों के साथ अफगान तथा ईरान को जोड़ सकते हैं. खबर है कि भारत सरकार ‘बीबीआइएन’ यानी भूटान, बांग्लादेश, इंडिया तथा नेपाल के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की कोशिश में है. कोशिश सही है, परंतु इनमें भूटान तथा नेपाल छोटे देश हैं. व्यावहारिक स्तर पर यह भारत एवं बांग्लादेश के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र रह जाता है.
भारत को सभी विकासशील देशों के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की पहल करनी चाहिए. क्योंकि सभी विकासशील देशों के आर्थिक हितों का विकसित देशों से दो विषयों पर सीधा गतिरोध है.
पहला विषय पेटेंट कानून का है. आज विश्व के अधिकतर पेटेंट विकसित देश की कंपनियों के पास है. उनके द्वारा पेटेंट कानूनों की आड़ में तमाम माल को महंगा बेचा जा रहा है. विकासशील देशों के हित में है कि पेटेंट कानून को ढीला कर दिया जाये. डब्ल्यूटीओ की दोहा वार्ता में इस मंतव्य को स्वीकार किया गया था, परंतु बाद में इसे निरस्त कर दिया गया. इसके विपरीत विकसित देशों के हित में है कि इसे और सख्त बनाया जाये, जिससे वे अपने माल को और महंगा बेच सकें. दूसरा गतिरोध कृषि उत्पादों के व्यापार का है.
1995 में डब्ल्यूटीओ संधि पर हस्ताक्षर होते समय विकसित देशों ने आश्वासन दिया था कि कृषि उत्पादों पर 10 वर्षों के भीतर समझौता कर लिया जायेगा. लेकिन, इस मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं हुई.
हमारे कृषि उत्पादों के लिए विकसित देशों के बाजारों को खोल दिया जाये, तो हमारे करोड़ों किसान लाभान्वित होंगे. लेकिन, विकसित देश इसमें रोड़ा अटकाये हुए हैं. चूंकि वे अपनी खाद्य सुरक्षा बनाये रखने के लिए वे अपनी जरूरत के कृषि पदार्थों का उत्पादन स्वयं करना चाहते हैं. इस प्रकार डब्ल्यूटीओ को वर्तमान ढांचा विकासशील देशों के हितों के विपरीत है.
विश्व अर्थव्यवस्था की मूलभूत विसंगति को दूर करने के लिए जरूरी है कि सभी विकासशील देश एकजुट होकर विकसित देशों का सामना करें. अतः हमें ‘विकासशील देश मुक्त व्यापार क्षेत्र’ बनाने का प्रयास करना चाहिए. इस दिशा में वर्तमान गुटनिरपेक्ष आंदोलन सहायक हो सकता है. क्योंकि आज दुनिया का एकमात्र ध्रुव अमेरिका ही विकसित देशों की अगुआई कर रहा है. विकसित देशों के इस समूह के सामने विकासशील देशों का कोई एकजुट संगठन विद्यमान नहीं है. रूस की स्थिति विकासशील देशों सरीखी ही हो गयी है.
अतः हमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन को पुनर्जीवित कर इसे नया आकार देना चाहिए. रूस तथा चीन के साथ सहयोग करके विकसित देशों में आपसी व्यापार बढ़ाना चाहिए. सभी विकासशील देश आपस में तकनीकों का आदान-प्रदान करें, तो विकसित देशों पर उन देशों की निर्भरता कम हो जायेगी. इस परिप्रेक्ष्य में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रति भारत की उदासीनता दुखदायी है. जाहिर है कि अमेरिकी बरगद के विशाल वृक्ष के नीचे हमारा पौधा बड़ा नहीं हो सकेगा.
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