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दर्द का हद से बढ़ना दवा नहीं

।। विश्वनाथ सचदेव ।।(वरिष्ठ पत्रकार)उस दिन अखबार के उस पन्‍ने पर सिर्फ बलात्कार की खबरें थीं. देश की राजधानी से लेकर असम की राजधानी तक से जुड़े वे समाचार एक बेबसी और लज्जा का बोध तो करा रहे थे, पर हैरानी की बात है कि कोई हैरानी नहीं हुई थी वह सब पढ़कर. दर्द के […]

।। विश्वनाथ सचदेव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
उस दिन अखबार के उस पन्‍ने पर सिर्फ बलात्कार की खबरें थीं. देश की राजधानी से लेकर असम की राजधानी तक से जुड़े वे समाचार एक बेबसी और लज्जा का बोध तो करा रहे थे, पर हैरानी की बात है कि कोई हैरानी नहीं हुई थी वह सब पढ़कर.

दर्द के हद से गुजर जाने का एक मतलब, शायद यही होता होगा- पर इसे निश्चत रूप से दवा हो जाना तो नहीं कहा जा सकता. सच यह है कि बलात्कार की खबरों के प्रति अब हम असंवेदनशील होते जा रहे हें. दिल्ली समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में बलात्कारियों को फांसी की सजा दिलवाने की मांग से लेकर सरकार और व्यवस्था की सफलता के नारे लगानेवालों के प्रदर्शनों के बावजूद ऐसा नहीं लग रहा कि इस संदर्भ में समाज में वह पीड़ा या गुस्सा है, जो ऐसे मामले में होना चाहिए था.

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज का एक वर्ग भले ही वह छोटा क्यों न हो, इस मामले में उद्वेलित है, लेकिन हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों में इस मामले से भी जिस तरह राजनीतिक लाभ उठाने की होड़-सी लग रही है, उसे देखकर एक पीड़ा और शर्म का एहसास ही होता है.

दिल्ली में हुए एक और बलात्कार को लेकर संसद में बयान देनेवाले गृहमंत्री यह कहना जरूरी समझते हैं कि दिल्ली के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह की घटनाएं घट रही हैं. तथ्यात्मक रूप से इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन इस कथन के पीछे की भी राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है. नाम उन्होंने भले ही न लिया हो, पर कहना वे यही चाहते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में भी बलात्कार हो रहे हैं. और वहां भाजपा चुप्पी साधे बैठी है.

उधर दिल्ली में पुलिस कमिश्नर और मुख्यमंत्री के इस्तीफे को लेकर भाजपा प्रदर्शन कर रही है. यहां भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि निशाना कहां पर है- इसी साल के अंत में दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं और भाजपा उस हर मौके का लाभ उठाना चाहती है जो उसकी राजनीति में मददगार हो सकता है. हमारे राजनेताओं को पता नहीं यह बात कब समझ आयेगी कि हर बात को राजनीतिक नफे -नुकसान की दृष्टि से देखकर वे अपने राजनीतिक स्वार्थ भले ही साध रहे हों, देश और समाज दोनों इस सौदे में घाटे में रहते हैं.

बलात्कार जघन्य अपराध है. इसकी कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए. इसके लिए कानून में, कानूनी-व्यवस्था में जो भी परिवर्तन अपेक्षित हैं, वो जल्दी से जल्दी होने चाहिए. पर क्या यह मात्र कानून व्यवस्था की समस्या है? क्या कड़े कानून और उनके ईमानदार क्रियान्वयन करने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा! देश में हर 22 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है. भयावह है यह आंकड़ा, पर आंकड़े अकसर पूरी बात नहीं बताते.

जिस दिन राजधानी दिल्ली में पांच साल की बच्ची के साथ बलात्कार के मामले को लेकर प्रदर्शन हो रहे थे, उसी दिन नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो की एक रिपोर्ट भी जारी हुई थी. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2001 से 2011 तक के दशक में देश में 48,338 बच्चियां बलात्कार की शिकार हुई थीं.

आंकड़ा यह भी बताता है कि इन दस सालों में छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में 336 प्रतिशत की वृद्धि हुई है- 2001 में यह संख्या 2113 थी जो दस साल बाद बढ़कर 7112 हो गयी. बलात्कार के तो वैसे भी सारे मामले दर्ज नहीं होते हैं, लेकिन बच्चियों के संदर्भ में तो मां-बाप अकसर चुप्पी साध लेना ही बेहतर समझते हैं. ऐसे में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि गुड़ियाओं के साथ बलात्कार की यह घटनाएं कितनी बड़ी संख्या में होती हैं. इसके साथ ही यह भी समझना जरूरी है कि नन्ही बच्चियों के साथ होने वाली यह अमानुषिक घटनाएं पुरुष के बीमार सोच को ही उजागर करती हैं. हकीकत यह भी है कि हमारी बच्चियां न घरों में सुरक्षित हैं और न स्कूलों में और न ही बाल सुधार गृहों में.

बच्चियों के साथ यह अत्याचार बलात्कार की पूरी समस्या को एक अलग ही कोण से देखने का अवसर देता है. हमारी दंड व्यवस्था के अनुसार बलात्कार एक घृणित दंडनीय अपराध है. इस दंड को कठोर से कठोरतम बनाने की मांग भी लगातार हो रही है. पर यदि मात्र दंड को कठोर बनाने से ही अपराधी डर जाते, तो अब तक यह समस्या समाप्त हो जानी चाहिए थी. हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि कठोर दंड के अभाव में समस्या और गंभीर हो सकती है. लेकिन दंड प्रक्रिया समस्या के समाधान का सिर्फ एक पहलू है. दूसरा पहलू अपराधी की मानसिक विकृति से जुड़ा हुआ है. यह मानसिक विकृति जब तक दूर नहीं की जायेगी, तब तक अपराध पर नियंत्रण नहीं होगा.

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