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खेल की संस्कृति और बाजार

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ओड़िशा से सटे झारखंड का सीमावर्ती आदिवासी-सदान गांव है– जलडेगा. पिछले दिनों यहां एक ही दिन दो विशिष्ट आयोजन संपन्न हुए. पहला, करमा त्योहार और दूसरा, शहीद विलियम लुगुन की स्मृति में फुटबॉल टूर्नामेंट. दोनों आयोजन यहां के उत्सव के अभिन्न हिस्से रहे हैं. ग्रामवासियों […]

डॉ अनुज लुगुन

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

ओड़िशा से सटे झारखंड का सीमावर्ती आदिवासी-सदान गांव है– जलडेगा. पिछले दिनों यहां एक ही दिन दो विशिष्ट आयोजन संपन्न हुए. पहला, करमा त्योहार और दूसरा, शहीद विलियम लुगुन की स्मृति में फुटबॉल टूर्नामेंट. दोनों आयोजन यहां के उत्सव के अभिन्न हिस्से रहे हैं. ग्रामवासियों ने आपसी सहभागिता और साझेदारी के साथ बेहद सौहार्दपूर्ण माहौल में उत्सव मनाया.

करमा त्योहार की तरह खेल यहां की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है. फुटबॉल, हॉकी, एथलेटिक्स यहां के लोगों का जुनून है. जिस दिन खेल का उत्सव होता है, उस दिन बड़े-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने काम को स्थगित कर मैदान में पहुंच जाते हैं. चाहे वह खेल ग्रामीण स्तर पर हो या जिला स्तर पर, या अन्य उच्च स्तर पर. मजेदार बात यह है कि विजेता के लिए पुरस्कार के रूप में धन की वर्षा नहीं की जाती है, बल्कि खस्सी या मुर्गा ही सबसे बड़ा सम्मान होता है.

यह आयोजन केवल पुरुषों के लिए ही नहीं, बल्कि लड़कियों के लिए खेलों का आयोजन किया जाता है. अक्सर युवाओं और अधेड़ वर्ग के लोगों के बीच भी रोमांचक मुकाबला होता है. न कहीं अश्लीलता होती है, न कोई अभद्रता. यहां के समाज ने सदियों से समरसता और सौहार्द्र की जनवादी विरासत को संभाल कर रखा है.

यह सिर्फ जलडेगा या उसके आस-पास के गांवों की ही नहीं, बल्कि झारखंड के बृहद हिस्से की आम बात है. यों कहें यह हमारे देश के उन हिस्सों की बात है, जिन्होंने शुरू से ही सामंती और साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी है. यह खेती-किसानी करनेवाला समाज है, मजदूरी करनेवाला समाज है. यह हमेशा से इतिहास में हाशिये में रखा गया आदिवासी-सदान और मूलवासियों का श्रमिक समाज है.

अक्सर कला और संस्कृति की बात करते हुए खेल को उससे अलग कर दिया जाता है, जबकि खेल किसी भी समाज की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है. दुनिया में जितने भी प्रकार के खेल हैं, उन खेलों का संबंध अनिवार्य रूप से वहां के समाज की उत्पादन प्रक्रियाओं से जुड़ा हुआ है.

जिस प्रकार कला और संस्कृति समाज के उत्पादन की प्रक्रियाओं से जुड़ी होती है उसी प्रकार खेल भी है. ‘खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब’ के पीछे ऐसे मध्यवर्गीय समाज की जड़ छवि दिखाई देती है, जो सिर्फ ‘नवाब’ बनने का ख्वाब देखती है. जिसको ‘नवाब’ नहीं हो सकने की पीड़ा है. यानी, खेल के लिए जिस ताकत, स्टेमना और धैर्य की जरूरत होती है, वह मूल रूप से श्रमिक समाज के पास ही होता है. इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में जितने भी महान खिलाड़ी हुए हैं, उनका अनिवार्य संबंध श्रमिक समाज से ही रहा है.

अभी हाल में ही ओलिंपिक खेल संपन्न हुए हैं. पदक तालिका में हमारा देश हमेशा की तरह पिछड़ा रहा. इस पर बौद्धिक विचार-विमर्श भी हुए. संभवत: हमारे देश के खेल मंत्रालय ने आत्ममंथन भी किया होगा. लेकिन क्या कभी इस बात पर गंभीरता से विचार होगा कि हमारे देश की सभी संस्थाएं श्रमिक समाज से दूर हो गयी हैं? सरकार के साथ ही सरकारी तंत्र भी आमजन से दूर हो गया है, जिसका एक लक्षण यह भी है. अक्सर खिलाड़ी या उसके प्रशिक्षक की तरफ से यह बात सुनने में आती है कि उपयुक्त सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं

सवाल है कि ‘उपयुक्त सुविधाएं’ क्या हैं और किसे चाहिए? दरअसल, ‘उपयुक्त सुविधाएं’ आधारभूत जरूरतें हैं, जिनसे हमारा श्रमिक समाज आज भी वंचित है. उसके पास स्टेमना है, वह जुझारू है, वह प्रतिभावान है, लेकिन उसका सारा संघर्ष बुनियादी जरूरतों को जुटाने में बीत जाता है. दुखद तो यह भी है कि हमारे राष्ट्रीय खेल ‘प्रतिभाओं की खोज’ के बजाय नौकरशाहों का अनुष्ठान बन कर रह जाता है. राष्ट्रमंडल खेल घोटाला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

हमारे समाज के अंदर निर्मित होता हुआ पूंजीवादी ढांचा खेल और श्रमिक समाज के बीच जो द्वंद्व पैदा कर रहा है, उससे निपटे बिना पदक की उम्मीद करना मुश्किल है. महंगे किट, महंगे साधन से आमजन दूर हैं. बांस के स्टिक से खेलनेवाले खिलाड़ी और किसी ब्रांड के स्टिक से खेलनेवाले खिलाड़ी की प्रतिभा में फर्क सिर्फ संस्थाओं तक पहुंचने का है.

हमें याद रखना चाहिए कि भारतीय हॉकी टीम के पहले कप्तान जयपाल सिंह मुंडा ने बांस और चिरौंजी के स्टिक से खेलना शुरू किया था. उन्होंने 1928 में पहली बार भारत को ओलिंपिक में गोल्ड दिलाया था. मनोहर तोपनो, सिल्वानुस डुंगडुंग और मसिरा सुरिन जैसे खिलाड़ी जंगलों और देहातों की पथरीली जमीन की ही उपज रहे हैं. हम सब जानते हैं कि एस्ट्रोटर्फ के आने के बाद ही हम हॉकी में पिछड़ते जा रहे हैं. यह स्थिति दूसरे खेलों के साथ भी है. सरकारी संस्थाओं का पूंजीकरण और खेल का बाजारीकरण स्वभावतः आमजन को हाशिये पर धकेल देगा. धीरे-धीरे खेलों पर उसी वर्ग का नियंत्रण हो जायेगा, जिसकी पहुंच बाजार और संस्थाओं तक होगी. यह खेल की संस्कृति पर हमला होगा.

जिन क्षेत्रों को पिछड़ा समझा जाता है, वस्तुतः वही क्षेत्र साधन संपन्न और प्रतिभा संपन्न हैं. जीवित और जुझारू लोग वही हैं. वहां अंत तक प्रतिरोध करने का जुनून है. ऐसी संस्कृति को न केवल मजबूत किया जाना चाहिए, बल्कि इसके मूल्यों का विस्तार किया जाना चाहिए. खेल एक संस्कृति के रूप में विकसित हो, न कि बाजार के ग्लैमर की तरह. अगर यह संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनेगा, तो पदक समाज को मिलेगा और यदि यह बाजार का हिस्सा बन गया, तो पदक पूंजी को मिलेगा. गौरतलब हो कि जलडेगा जैसे श्रमिक समाज हमारे देश में हर जगह मौजूद है.

आमजन अपने जननायकों की स्मृति में या, किसी अन्य खास अवसरों पर सामूहिक प्रयास से खेलों का सांस्कृतिक आयोजन करती रहती है. हमारे देश की संस्थाओं को उन तक अपनी ईमानदार पहुंच बनानी होगी. इससे न केवल वास्तविक प्रतिभाएं केंद्र में आयेंगी, बल्कि इसी रास्ते लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया का विस्तार भी होगा.

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