पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
आजादी के बाद लोकतांत्रिक भारत को मजबूत बनाने में शामिल शानदार लोगों की सूची में एक नया नाम जुड़ा है- पेरुमल मुरुगन. कुछ साल पहले तक तमिलनाडु के बाहर बहुत कम लोगों ने उनका नाम सुना होगा. यह 50 वर्षीय विद्वान और कई उपन्यास, लघुकथा और कविता-संग्रहों का लेखक चेन्नई के चकाचौंध से दूर नमक्कल के गवर्नमेंट आर्ट कॉलेज में तमिल पढ़ाते हुए खुश थे.
लेकिन, प्रारब्ध उन्हें प्रसिद्ध तमिल लेखक से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्थापित करने की प्रतीक्षा में था.
वर्ष 2010 में मुरुगन ने ‘माधोरुबागन’ शीर्षक से एक तमिल उपन्यास लिखा, जो अंगरेजी में ‘वन पार्ट वूमन’ नाम से अनुदित हुआ. इसमें एक ऐसे नि:संतान दंपति की कहानी है, जो सामाजिक लांछन से मुक्त होने के लिए बच्चा पाने को अधीर था. इसमें मुरुगन ने एक ऐसी परंपरा के बारे में लिखा है, जिसमें नि:संतान महिला रथ यात्रा के 14वें दिन परस्पर सहमति से किसी अजनबी के साथ सहवास कर सकती है.
कभी इस परंपरा को सामुदायिक मान्यता थी और यह नि:संतानता दूर करने का एक उपाय था. ऐसा कोई महिला प्राय: अपने पति की सहमति से करती थी. इसे अनैतिक नहीं माना जाता था. मुरुगन ने एक नि:संतान दंपति के दुख व अपमान को दर्शाने के लिए एक शक्तिशाली रूपक के तौर पर इस परंपरा का इस्तेमाल किया. दिलचस्प है कि समाज के किसी वर्ग ने चार वर्षों तक इस उपन्यास का विरोध नहीं किया. लेकिन, 2014 के दिसंबर में कुछ लोगों ने भारी विरोध किया. उसी साल मई में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी थी. तो क्या इससे हिंदू दक्षिणपंथ के ‘हाशिये के समूहों’ को नयी आक्रामकता मिली?
यह भी अजीब बात हुई कि जब विरोध बढ़ने लगा, तब तमिलनाडु सरकार ने ‘शांति’ बनाये रखने के नाम पर ‘अनधिकृत’ तौर पर उपन्यास के प्रसार पर रोक लगा दी. इस मामले में दखल देने का राज्य का क्या अधिकार था? और क्या मुरुगन के खिलाफ धमकी देनेवाले छोटे समूहों की आक्रामकता के सामने घुटने टेक देना राज्य के लिए सही था?
बिना मसले को समझे और संविधान के अनुच्छेद 19 में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अपने निर्णय के प्रभाव की परवाह किये किसी भी तरह से ‘शांति’ बहाल करना राज्य का धर्म है?
राज्य द्वारा अपने हाल पर छोड़ दिये जाने और अशिक्षित जहरीले हमलों से परेशान मुरुगन ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया. उन्हाेंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा, ‘लेखक पेरुमल मुरुगन की मौत हो गयी. चूंकि वह ईश्वर नहीं है, इसलिए वह स्वयं को पुनर्जीवित नहीं कर सकता है.
पुनर्जन्म में भी उसकी आस्था नहीं है. एक साधारण शिक्षक के रूप में वह पेरुमल मुरुगन के तौर पर जीवित रहेगा. उसे अकेला छोड़ दिया जाये.’
साहित्यिक आत्महत्या की ऐसी सार्वजनिक घोषणा का कोई अन्य उदाहरण शायद ही मिले. मुरुगन को ऐसा कदम क्यों उठाना पड़ा? उनके पास दूसरा कोई और विकल्प बचा भी न था.
उनके विरोधी तर्क के लिए तैयार न थे. उनका तरीका धमकी देना, डराना, हिंसा करना और सामाजिक रूप से सही माने जानेवाली बातों या उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति से थोड़ा भी अलग सोचनेवाले के खिलाफ आक्रोश पौदा करना था. उनमें से शायद ही किसी ने कालीदास, भर्तृहरि या वात्स्यायन की रचनाओं को पढ़ा होगा. अगर पढ़ा होता तो उन्हें पता होता कि हिंदू साहित्य परंपरा में किस स्तर की स्वतंत्रता रचनाकारों को प्राप्त थी. सरकार द्वारा संरक्षण देने से इनकार करने तथा दाभोलकर, पानसारे और कलबुर्गी के साथ हुई घटनाओं को देखते हुए मुरुगन ने बतौर लेखक मरने का निर्णय लिया.
इस मामले में न्यायिक दखल ने मुरुगन को उनके साहित्यिक कब्र से जीवित कर दिया. चेन्नई हाइकोर्ट के मुख्य नयायाधीश संजय किशन कौल और न्यायाधीश पुष्पा सत्यनारायण की खंडपीठ ने पांच जुलाई, 2016 को अपने फैसले में कहा, ‘लेखक को पुनर्जीवित किया जाये, ताकि वह उस काम को अंजाम दे सके, जो वह करना बखूबी जानता है- लेखन.’ विद्वान न्यायाधीशों ने यह भी कहा, ‘उपन्यास आपको झकझोरता है, लेकिन उस तरह से नहीं, जैसा कि विरोधी दावा कर रहे हैं. यह आपको झकझोरता है, क्याेंकि इसमें एक नि:संतान दंपति के शब्दों में दर्द बयान किया गया है.’ कोर्ट ने मुरुगन के खिलाफ सभी मुकदमों को रद्द कर दिया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह मुरुगन को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराये.
अदालत ने यह भी कहा कि ‘अगर आपको कोई किताब पसंद नहीं आ रही है, तो आप उसे न पढ़ें. प्रतिबंध कोई उत्तर नहीं है.’ हिंदुत्व के ऐसे समूह अपने को सर्वशक्तिमान समझ सकते हैं, पर उन्हें भारतीय लोकतंत्र, खासकर न्यायपालिका की ताकत को कमतर कर नहीं आंकना चाहिए. लेखक पेरुमल मुरुगन एक बार फिर से जीवित हो गये हैं. अब उम्मीद है कि बिना हिंदुत्व समूहों की सोच की परवाह किये सभी रचनाधर्मी लेखक समाज को ‘झकझोरने’ की प्रक्रिया जारी रखेंगे.