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अभिव्यक्ति की आजादी का मूल
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जरूरत क्या है? यह सवाल पिछले दिनों जबलपुर में आयोजित एक राष्ट्रीय परिसंवाद में एक श्रोता ने उठाया था. निश्चित रूप से यह सवाल पूछने के पीछे वह अराजकता थी, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश-समाज में पसर रही है. परिसंवाद का विषय था […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जरूरत क्या है? यह सवाल पिछले दिनों जबलपुर में आयोजित एक राष्ट्रीय परिसंवाद में एक श्रोता ने उठाया था. निश्चित रूप से यह सवाल पूछने के पीछे वह अराजकता थी, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश-समाज में पसर रही है.
परिसंवाद का विषय था ‘मीडिया पर सत्ता का दबाव’. राजनीतिक सत्ता, काॅरपोरेटी सत्ता और भीड़ की सत्ता के हवाले से वक्ताओं ने मीडिया पर सत्ता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव के बारे में विस्तार से चर्चा की. रेखांकित किया गया कि जनतंत्र में मीडिया और सत्ता के हितों में टकराव स्वाभाविक है, क्योंकि मीडिया की भूमिका के मूल में एक चौकीदारी का भाव है, कर्तव्य है- जनता के हितों की चौकीदारी. संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा भी मीडिया के इसी कर्तव्य और दायित्व का हिस्सा है.
जहां एक ओर अधिकार जनतंत्र में नागरिक की भागीदारी और कर्तव्य-पूर्ति को सुनिश्चित करता है, वहीं इसका दुरुपयोग उन तत्वों को ताकतवर बनाता है, जो इस अधिकार के नाम पर सामाजिक समरसता को बिगाड़ सकते हैं, बिगाड़ते हैं. जो जिसके मन में आ रहा है, बोल रहा है और इस मनमानी की शुरुआत हमारे नेताओं से होती है. लगता है नेताओं ने यह मान लिया है कि वे न तो कुछ गलत कर सकते हैं, और न ही गलत कह सकते हैं. दूसरे शब्दों में, नेता कभी गलत नहीं होता.
आये दिन अखबारों में, टीवी पर हम अपने नेताओं के ‘अमृत वाक्यों’ को पढ़ते-सुनते हैं. संसद से सड़क तक हमारे ये नेता कुछ भी कहने की आजादी का प्रदर्शन करते दिखते हैं. छुटभैये नेताओं ने अपने इस अधिकार को असीमित बना रखा है. अक्सर राजनीतिक दल राजनेताओं के ऐसे बयानों को ‘उनका व्यक्तिगत विचार’ घोषित कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह के बयानों के नफे-नुकसान राजनीतिक दल ही उठाते हैं.
इस तरह के बयान अनायास नहीं होते, सोच-समझ कर राजनीतिक स्वार्थों के लिए दिये जाते हैं. जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि नागरिक (इसमें नेता भी शामिल हैं) एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए विवेकसम्मत बात कहें.
अभिव्यक्ति की आजादी के मूल में विचार की आजादी का मुद्दा है. जानवर और मनुष्य में महत्वपूर्ण भेद यह है कि मनुष्य सोच सकता हैö. और इस सोच की साझीदारी चिंतन को व्यापकता देती है, उसे सामूहिक चिंतन बनाती है. यही सामूहिक चिंतन समाज की अभिव्यक्ति बनता है.
यानी मेरा चिंतन यदि दूसरे तक नहीं पहुंच रहा है, तो वह किसी सामाजिक हित का माध्यम नहीं बन सकता. इसी चिंतन पहुंचाने का नाम है अभिव्यक्ति. यह विचार-यात्रा चलती रहे, तभी विचारों का मंथन होगा, तभी अमृत मिलेगा.
जनतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ यह भी है कि किसी सत्ता से जुड़ा व्यक्ति अपनी बात या सोच को अंतिम सत्य मानने का भ्रम न पाले. इस आजादी के अभाव में तानाशाही पलती है. सत्ताधारी अर्थात ताकतवर यह मान लेता है कि वही सही सोच सकता है, और जो वह सोचता है वही सही है.
तब उसे अपना किया कुछ भी गलत नहीं लगता. ऐसे में सत्ताधारी के विचारों को कोई चुनौती नहीं मिलती, इसलिए एक मिथ्याभिमान जन्मता है, जो व्यक्ति की समानता के सिद्धांत को बिखेर देता है. इसीलिए ‘हम भारत के लोगों’ ने अपने आप को जो संविधान दिया, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस अधिकार को बड़ी प्रमुखता से रेखांकित किया है. लेकिन, अपरिमित नहीं है यह अधिकार- आपको मुक्का चलाने का अधिकार है, पर मेरी नाक पर मुक्का मारने का नहीं. आजादी की यह सीमा व्यक्ति से विवेकशील व्यवहार की अपेक्षा करती है.
दुर्भाग्य से यह विवेकशीलता आज हमारे व्यवहार में नहीं दिख रही.इसीलिए किसी पेरूमल मुरगन का लेखन किसी समाज के एक हिस्से को अपनी भावनाओं पर आघात लगने लगता है और फिर लेखक को माफी मांगने के लिए बाध्य कर दिया जाता है.
अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध किसी विवेकशील समाज की पहचान नहीं है. जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि हर नागरिक को अपनी सोच को प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए और जनतांत्रिक आदर्श हमें यह भी सिखाते हैं कि नागरिक को अपने सच को प्रकट करने से पहले उसे विवेक के तराजू पर तोलना चाहिए. वस्तुतः यह विवेक जनतंत्र की रीढ़ है.
हमारी त्रासदी यह है कि हमने कथित भावनाओं को विवेक से अधिक तरजीह दे दी है. विवेक की यह उपेक्षा बहुत भारी पड़ रही है हमें. इसलिए हम न जातीयता के चुंगल से मुक्त हो पार रहे हैं, न सांप्रदायिकता के जाल से. ऐसे में यदि व्यक्ति के विचार को पनपने का अवसर नहीं मिलेगा, तो उससे पैदा होनेवाली जड़ता मनुष्य के विकास के सारे रास्तों को अवरुद्ध कर देगी.
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