बिहार के गंवई इलाकों में खेती को लेकर एक कहावत है कि ‘अगात खेती आगे-आगे, पछात खेती भागे-जोगे’ यानी कोई शुरुआत ठीक समय से नहीं हो पायी तो फिर उसका सुपरिणाम भाग्य-संयोग से ही हासिल हो सकता है. कांग्रेस की चुनावी तैयारियों के बारे में भी यह बात कही जा सकती है. कांग्रेस ने राहुल गांधी को 2014 के आम चुनाव के लिए अभियान की कमान पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह पिट जाने के बाद थमायी. तब तक 2014 के चुनावी मुद्दे और प्रभावकारी रहनेवाले चेहरे एक तरह से तय हो चुके थे.
चुनावी जंग में कांग्रेस की तरफ से सेनापति के रूप में राहुल जब तक मैदान में उतरे, तब तक बाकी दलों ने अपने रणनीतिक मैदान को सजा लिया था. राहुल के लिए विकल्प यही बचा था कि छूटी हुई जमीन पर अपनी पार्टी की तरफ से आखिरी कोशिश के तौर पर रणनीतिक पहलकदमी करें. उनकी यह पहलकदमी एक टीवी चैनल को दिये इंटरव्यू में नजर आयी और पहलकदमी की सीमाएं भी स्पष्ट हुईं. इंटरव्यू में उन्होंने ‘व्यवस्था’ शब्द का उच्चारण बारंबार किया और जिन दोषों का जिम्मा बाकी पार्टियां कांग्रेस के मत्थे मढ़ती हैं उन्हें व्यवस्थागत बतलाया. मगर, वे अपने इंटरव्यू में यह नहीं बता पाये कि व्यवस्थागत सुधार की उनकी अपनी योजना कैसी है.
कुछ सवालों के जवाब में उन्होंने चतुराई दिखायी, तो कुछ के जवाब में पुरानी बातों को दोहराया. मिसाल के लिए आरटीआइ में संशोधन होना चाहिए या नहीं के जवाब में उन्होंने दलों के बीच सर्वसम्मति की आड़ ली, तो भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए हर पार्टी से सहयोग देने की बात कही. राजनीति में वंशवाद के खात्मे के सवाल पर उन्होंने दोहराया कि पार्टी नये लोगों से जुड़ेगी, लेकिन यह भी जोड़ा कि कांग्रेस के स्थापित चलन को समाप्त करके नयी शुरुआत करने के पक्ष में वे नहीं है. इंटरव्यू से बस इतना ही स्पष्ट हुआ कि यदि कांग्रेस 2014 का चुनाव हारती है तो उसका जिम्मा लेने के लिए वे तैयार होंगे और चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा को वे लोकतांत्रिक नहीं मानते. लेकिन राहुल के सामने मूल सवाल व्यवस्थागत बदलाव का था, जिसे वे तमाम दोषों की जननी मानते हैं, पर वे स्पष्ट नहीं कर पाये कि व्यवस्था बदलने की उनकी योजना क्या है.