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न रौंदें पैरों से

आस्था भिन्न चीज है. सामाजिक जीवन का आधार आस्था और परंपराओं पर भी टिका है. सवाल आस्था का न होता, तो यह सवाल जरूर उठता कि सैकड़ों लीटर दूध शिवालयों में बहा कर पैरों से रौंदना कैसी आस्था है? यह कैसी भक्ति है? दुग्ध धाराओं से शिव को प्रसन्न करने में हम गरीबों के हिस्से […]

आस्था भिन्न चीज है. सामाजिक जीवन का आधार आस्था और परंपराओं पर भी टिका है. सवाल आस्था का न होता, तो यह सवाल जरूर उठता कि सैकड़ों लीटर दूध शिवालयों में बहा कर पैरों से रौंदना कैसी आस्था है? यह कैसी भक्ति है?
दुग्ध धाराओं से शिव को प्रसन्न करने में हम गरीबों के हिस्से का मोटा अंश नालियों में बहा देते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि दूध का महत्व हमें नहीं मालूम. यह भी पता है कि देश के एक बड़े तबके तक दूध का पहुंचना अब तक मुमकिन नहीं हो सका है. मगर, हमारे तर्कों के सामने सब बेमानी हैं.
सामाजिक संगठनों को ऐसे धार्मिक अवसरों पर मुफ्त दुग्धदान के बजाय लोगों से दुग्धदान मांगने चाहिए, ताकि हमारे हिस्से का छोटा हिस्सा हजारों कुपोषित मांओं और उनके नौनिहालों तक पहुंच सके. क्यों न सावन के पवित्र महीने को ‘दूधदान’ का महीना बनाया जाये. सवाल आस्था का है, तो महाप्रभु के सिर पर चढ़े दूध को पैरों से तो न रौंदें.
एमके मिश्रा, रांची

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