वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक का संसद से अनुमोदित होना आर्थिक सुधारों की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कदम है. बीते कुछ सालों से इस विधेयक के प्रावधानों पर राजनीतिक खींचतान चल रही थी, लेकिन आखिरकार कुछ बदलावों के साथ इस पर व्यापक सहमति हमारी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का संकेत है. देश में कराधान की मौजूदा प्रणाली के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के जटिल संजाल के स्थान पर एकल कर की व्यवस्था से आर्थिक गतिविधियों को नया आयाम मिलने की उम्मीद है.
इससे कारोबार में सरलता आयेगी और व्यापारिक पारदर्शिता बढ़ेगी. कराधान व्यवस्था की बेहतरी और आर्थिक सुधारों को गति देने के उद्देश्य से लाये गये इस संविधान संशोधन विधेयक के पारित हो जाने से महत्वपूर्ण विधायी अड़चन तो दूर हो गयी है, लेकिन अब इसे समुचित रूप से एक साथ समूचे देश में आगामी वित्त वर्ष में लागू करने की बड़ी चुनौती सरकार के सामने है, जिसमें राज्य सरकारों को भी अपनी महती भूमिका निभानी होगी. उम्मीद है कि राजनीतिक सहमति इसे व्यावहारिक रूप देने की प्रक्रिया को भी आसान करने में मददगार होगी.
उद्योग जगत और वित्तीय संस्थाओं ने इस विधान का भरपूर स्वागत किया है, लेकिन जीएसटी तंत्र से जुड़ी चिंताओं को दूर करने की जरूरत अभी भी बनी हुई है. किसी भी कानून या कार्यक्रम के अच्छा या खराब होने का मापदंड आम जनता को मिलनेवाले लाभ ही हो सकते हैं.
जीएसटी की संरचना ऐसी बनायी जानी चाहिए कि आम आदमी पर करों का बोझ न बढ़े और उसे रोजमर्रा की जरूरतों के लिए अधिक दाम चुकाने को मजबूर न होना पड़े. महंगाई और मुद्रास्फीति से लोग, खासकर निम्न आय वर्ग और गरीब पहले से ही परेशान है.
करों के हिसाब-किताब, सामानों की ढुलाई के खर्च और विभिन्न सेस ऐसे संतुलित तरीके से लागू हों कि नागरिकों की जेब पर बेजा बोझ न बढ़े. जिन देशों में पहले से जीएसटी तंत्र है, वहां के अनुभवों को भी संज्ञान में लेना चाहिए, ताकि उनकी खामियों के प्रति हम पहले से ही सचेत हो सकें. आशा है कि जीएसटी से अर्थव्यवस्था के विकास का लाभ निचले तबकों तक पहुंच सकेगा और आर्थिक समृद्धि की राह आसान होगी.