हिंदुस्तानी संगीत परंपरा को अपने तबले की ताल और थाप से नयी ऊंचाइयां देनेवाले 72 वर्षीय पंडित लच्छू महाराज का निधन एक बड़ी सांस्कृतिक क्षति है. बनारस घराने के इस तबलावादक ने जहां अपने घराने के साथ अन्य प्रमुख घरानों- दिल्ली, अजरारा, लखनऊ और पंजाब- की शैली में भी खूब बजाया और उन्हें समृद्ध किया, वहीं सिनेमा जैसी विधा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया.
लच्छू महाराज का पूरा नाम लक्ष्मी नारायण सिंह था और उन्होंने, जैसा कि शास्त्रीय संगीत में आम प्रचलन है, तबलावादन की शिक्षा अपने पिता वासुदेव नारायण सिंह से ली. सुदीर्घ रचनात्मक जीवन में देश-विदेश में कला-प्रेमियों को भाव-विभोर करनेवाले लच्छू महाराज हमेशा बनारस में ही रहे और बनारस के ही रहे. कलात्मक मेधा, मस्तमौला स्वभाव, अक्खड़पन और कस्बाई मिथकों के इस अनोखे शहर के समकालीन इतिहास में उनके जीवन और जीने के अंदाज की एक खास जगह है.
उनकी फ्रांसीसी पत्नी और बेटी स्विट्जरलैंड जा बसीं. लच्छू महाराज वहां आते-जाते तो रहे, पर बनारस नहीं छोड़ा. तबले की साधना करते रहे, अगली पीढ़ी को सिखाते-बताते रहे, पर पद और पुरस्कार के फेर में नहीं पड़े. पद्म सम्मान को यह कह कर ठुकरा दिया कि कलाकार को पुरस्कार की जरूरत नहीं होती, श्रोताओं की वाह और प्रशंसा ही सबसे बड़ा सम्मान है. धन और प्रसिद्धि की चाह उन्हें मुंबई में भी न रोक सकी. जब मर्जी हुई, तब बजाया, किसी के कहने पर नहीं.
अपना काम करते रहे, नाम होता रहा. शोहरत की बुलंदी पर भी खांटी बनारसी स्वभाव बचाये रखा. उनके जाने के दुख में डुबे बनारस को देख कर शहर से उनके लगाव का अंदाजा लगाया जा सकता है. संगीत समेत कला के अन्य रूपों में तेज बदलाव तथा मनोरंजन के विविध नये तौर-तरीकों के सिलसिले के बीच शास्त्रीय परंपरा का स्वर और उसकी ध्वनि अगर आज भी ठाट से बची हुई है, उसका असली श्रेय पंडित लच्छू महाराज जैसे साधकों को जाता है.
सामान्य प्रतिभा, चलताऊ प्रशिक्षण और थोथे प्रदर्शन की होड़ से त्रस्त हमारे वर्तमान कला-संसार में वे रोशनी की मीनार थे, जहां से संगीत की गहराई, विस्तार और ऊंचाई के असीम का अनुभव किया जा सकता है तथा उससे प्रेरणा ली जा सकती है.