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राज्यपाल पर सवाल

केंद्र सरकार को मिला भारी बहुमत बेशक उसे मजबूत बनाता है, राजनीतिक फैसले लेना आसान हो जाता है, पर यह आशंका भी रहती है कि अपनी मजबूती के मद में कहीं वह संघीय ढांचे के भीतर केंद्र और राज्यों के संबंधों में संतुलन बनाये रखने की जरूरी जिम्मेवारी को भूल न जाये. सुप्रीम कोर्ट ने […]

केंद्र सरकार को मिला भारी बहुमत बेशक उसे मजबूत बनाता है, राजनीतिक फैसले लेना आसान हो जाता है, पर यह आशंका भी रहती है कि अपनी मजबूती के मद में कहीं वह संघीय ढांचे के भीतर केंद्र और राज्यों के संबंधों में संतुलन बनाये रखने की जरूरी जिम्मेवारी को भूल न जाये.

सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश में लगाये गये राष्ट्रपति शासन को अवैध करार देते हुए नाबाम टुकी के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार को बहाल करने का आदेश देकर एक तरह से यही संदेश सुनाया है कि संघीय ढांचे के भीतर राज्य सरकारों की आपेक्षिक स्वायत्तता की संविधान प्रदत्त स्थिति की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. यह पांच जजों की पीठ का फैसला है. ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी राज्य में नयी सरकार बन जाने के बाद पुरानी सरकार को फिर से बहाल करने का आदेश दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति शासन की सलाह देना संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध था.

देश के संविधान का अनुच्छेद-356, संघीय सरकार को अधिकार देता है कि वह किसी राज्य में संवैधानिक ढांचे के विफल होने, संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन या राज्य की विधानसभा में किसी भी दल या गठबंधन के अल्पमत में आने की स्थिति में उस राज्य के राज्यपाल की सलाह पर ध्यान दे और जरूरी लगने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करे. लेकिन, यह भी ध्यान देना चाहिए कि अनुच्छेद 356 के बारे में संविधान सभा में स्वयं प्रारूप समिति के प्रधान बाबा साहब आंबेडकर ने क्या कहा था. केंद्र में बननेवाली सरकारों द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए इस अनुच्छेद के दुरुपयोग की आशंका पर बाबा साहब का उत्तर था- ‘मेरा मानना है कि इस अनुच्छेद का कभी उपयोग ही नहीं होगा और यह प्राणहीन पड़ा रहेगा.

अगर यह अनुच्छेद कभी अमल में लाया भी जाता है, तब भी मुझे उम्मीद है कि राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के अनुकूल प्रांतों की सरकारों को निलंबित करने से पहले पर्याप्त सतर्कता बरतेंगे. मेरे ख्याल से राष्ट्रपति पहले गलती करनेवाले राज्य को सिर्फ चेतावनी जारी करेंगे कि वहां चीजें संविधान में वर्णित विधान की मंशा के अनुकूल नहीं हो रही हैं. अगर यह चेतावनी विफल रहती है, तब राष्ट्रपति का अगला कदम होगा कि वे राज्य में चुनाव करवाने के आदेश दें, ताकि राज्य की जनता खुद ही मामले को सुलझा ले. इन दो उपायों के विफल रहने के बाद ही राष्ट्रपति इस अनुच्छेद पर अमल करेंगे.’

लेकिन, आजाद हिंदुस्तान का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने में केंद्र की सरकारों ने बाबा साहेब की सीख पर तनिक भी कान नहीं दिया. केंद्र में कांग्रसी शासन के प्रभुत्व के दिनों में, खास कर 1967 से 1977 के बीच, अनुच्छेद 356 के सहारे कई प्रांतीय सरकारों को बहाने बना कर हटाया गया और राष्ट्रपति शासन लागू किया गया. केंद्र में कांग्रेसी शासन के समय यह चलन कितना आम हो चला था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक राजनीति विज्ञानी ने ‘प्रेसीडेंट्स रूल इन इंडिया’(1977) नाम से पूरी किताब ही लिख दी.

हालांकि चौतरफा आलोचनाओं के बावजूद प्रांतों की सरकारों को राज्यपाल की सलाह पर निलंबित करना जारी रहा और मामला कई बार कोर्ट में पहुंचा. कर्नाटक में जनता पार्टी के मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई की सरकार के गिरने और वहां राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद तो सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने अपनी तरफ से इस चलन पर रोक लगाने के लिए कुछ स्पष्ट दिशानिर्देश भी तय कर दिये. इनमें साफ कहा गया कि एक तो किसी राज्य में निर्वाचित सरकार को निलंबित करने से कम-से-कम हफ्ते भर पहले केंद्र चेतावनी जारी करे, दूसरे प्रशासनिक तंत्र नहीं, बल्कि संवैधानिक तंत्र की विफलता पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाये और तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही गयी कि कोर्ट भले ही राष्ट्रपति को मिली सलाह की समीक्षा करने का अधिकारी न हो, तब भी वह राष्ट्रपति शासन लागू करने संबंधी तथ्यों की समीक्षा कर सकता है.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था के बावजूद प्रांतों की सरकारों का गिराया जाना अगर जारी है, तो इसलिए कि राज्यपाल अकसर केंद्र की सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल के हितपोषक के रूप में काम करते हैं. मई, 1982 में हरियाणा के राज्यपाल के रूप में गणपत राव तपासे ने वहां सरकारों को बनवाने-गिराने का जो प्रहसन खेला था, उसकी बानगी कभी सैयद सिब्ते रजी (राज्यपाल, झारखंड) के रूप में देखने को मिली, तो कभी बूटा सिंह (राज्यपाल, बिहार) के रूप में.

कहना गलत नहीं होगा कि भविष्य में भी अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे हालात पैदा होते रहेंगे, यदि राज्यपालों की नियुक्ति राजनीतिक दल के हितपोषक के रूप में होती रहेगी.

2014 में बनी एनडीए सरकार हो या इससे पहले की यूपीए सरकार, दोनों ने राज्यपालों की नियुक्ति इसी रूप में ही की है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमें फिर से इस प्रश्न पर विचार करने का एक मौका दे रहा है कि 66 साल पूरे कर चुके हमारे गणतंत्र को राज्यपाल सरीखी किसी औपनिवेशिक संस्था की कितनी जरूरत है!

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