किसी भी पूर्ववर्ती केंद्र सरकार की तुलना में मौजूदा मंत्रिपरिषद में उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक मंत्री हैं. चुनावी गणित में जातिगत और वोटबैंकों के समीकरण हमारी राजनीति के प्रमुख तत्व रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि इन समीकरणों को ध्यान में रख कर ही ज्यादातर नये चेहरों को चुना गया है. कयास लगाये जा रहे थे कि कई मंत्रियों की छुट्टी हो सकती है, लेकिन सिर्फ पांच राज्यमंत्रियों को हटाया गया है.
इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि उनमें से कुछ को पार्टी संगठन में भेजा जा रहा है. इससे यह संदेश भी दिया जा सकता है कि बाकी मंत्रियों का कामकाज संतोषजनक है. हालांकि तब कुछ और राज्यमंत्रियों को प्रोन्नत किया जाना चाहिए था. फिलहाल सिर्फ एक राज्यमंत्री को कैबिनेट में जगह मिली है. कुछ मंत्रियों की जिम्मेवारी में बदलाव संभावित है. इससे उनके कामकाज पर प्रधानमंत्री के आकलन का अंदाजा मिल सकेगा. भाजपानीत गठबंधन में पार्टियों की बड़ी संख्या के कारण मंत्रियों के चयन में कुछ मुश्किलें स्वाभाविक हैं.
मौजूदा विस्तार में ऐसी मुश्किलों से पार पाने की भी बखूबी कोशिश की गयी है, परंतु प्रमुख सहयोगी दल शिवसेना के साथ तनातनी बरकरार है. सैद्धांतिक तौर पर मंत्रियों का चयन प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है, लेकिन उन्हें अपनी पार्टी के साथ-साथ सहयोगी दलों और आम राजनीतिक माहौल का भी ध्यान रखना ही पड़ता है. भाजपा के कुछ शीर्षस्थ नेताओं के करीबियों को मंत्री बना कर पार्टी में आंतरिक शक्ति-संतुलन को साधने की भी कोशिश हुई है.
मध्यप्रदेश और राजस्थान से शामिल किये गये चेहरे बताते हैं कि उनके चयन से भाजपा की राज्य-स्तरीय राजनीति के अलग-अलग खेमों को संतुष्ट किया गया है. उल्लेखनीय है कि पिछले साल मिले चुनावी झटकों के बाद इस साल राज्यों के चुनावों में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन ने प्रधानमंत्री और पार्टी के आत्मविश्वास को बहाल किया है. विस्तार में सिर्फ राज्यमंत्रियों को शामिल करना इसी भरोसे को दरसाता है. बहरहाल, मोदी सरकार अपने कार्यकाल का दो साल पूरा कर चुकी है. राज्यों के आगामी चुनावों के अलावा अगले लोकसभा चुनाव में भी इस मंत्रिपरिषद का प्रदर्शन कसौटी पर होगा, जिसके आधार पर जनता अपना निर्णय देगी.